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में प्रकाशित है। श्री हितोशी इनोई ने इसका सम्पादन किया था और रोमन अक्षरों में इसका जापान से प्रकाशन हुआ था। भारतीय जिज्ञासुवों के हित की दृष्टि से इसका यहाँ देवनागरी में लिप्यन्तरण प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, इससे तन्त्रसम्बन्धी जानकारी में अभिवृद्धि होगी। इसका सम्पादन प्रो. रामशङ्कर त्रिपाठी जी ने किया है।
आचार्य नागार्जन द्वारा विरचित 'निरौपम्यस्तव' एवं 'परमार्थस्तव' अत्यन्त दुर्लभ लघुग्रन्थ है। इसका सम्पादन प्रो. थुबतन छोगडुब जी ने परिश्रमपूर्वक किया है। निरौपम्यस्तव में १५ कारिकाएँ हैं, जिन्हें अंग्रेजी अनुवाद के साथ यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें धर्मकाय-स्वरूप-शून्यता का मुख्यरूप से वर्णन करते हुए भक्तिपूर्ण शब्दों द्वारा तथागत की स्तुति की गयी है। परमार्थस्तव में केवल ११ कारिकाएँ हैं। इसमें परमार्थ या शून्यता के यथार्थ ज्ञाता होने की दृष्टि से बुद्ध की स्तुति की गयी है। आचार्य थुबतन छोगडुब जी ने हिन्दी में इनका सारांश भी प्रस्तुत किया है, जिससे सामान्य लोग भी लाभान्वित हो सकेंगे और श्रद्धालुजन इन स्तोत्रों के द्वारा भगवान् बुद्ध के प्रति श्रद्धा अर्पित कर सकेंगे।
'षड्दर्शनेषु प्रमाण-प्रमेय-समुच्चयः' एक महत्त्वपूर्ण लघु-ग्रन्थ है। इसका सम्पादन कुमार अनेकान्त जैन ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक किया है। इस लघु-ग्रन्थ का प्रणयन अनन्तवीर्याचार्य नामक जैनाचार्य ने १२ वीं सदी में किया था। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित एवं अप्राप्य है। इसके सम्पादन एवं प्रकाशन से सभी दर्शनों के प्रमाण और प्रमेय को सरल भाषा में सामान्य और जिज्ञासु जन को समझने में सहायता मिलेगी। इससे शोधकर्ता भी लाभ उठा सकेंगे।
'श्रमणविद्या' भाग-३ में प्रकाशित उपर्युक्त सामग्री प्राच्यविद्याओं के अनुशीलन एवं शोध में कितनी उपयोगी सिद्ध होगी, यह इस क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वानों एवं गवेषकों के प्रयत्नों पर निर्भर करेगी।
भारत सरकार ने १९९९-२००० वर्ष को संस्कृतवर्ष घोषित किया। माननीय कुलपति प्रो. राममूर्ति शर्मा जी के प्रयास से सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय को संस्कृत के प्रचार-प्रसार हेतु एक योजना की स्वीकृति मिली। फलस्वरूप इस विश्वविद्यालय में अनेक कार्य-क्रम आयोजित हुए। कुलपति जी के सत्सङ्कल्प के अनुरूप प्राच्यविद्या के डेढ़ सौ विद्वानों का सम्मान किया गया,
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