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उपर्युक्त कुछ उदाहरणों से पाठकों को भलीभाँति पता चल गया होगा कि बहुत सी बातों में वैदिक और जैन दोनों का राजनीति के नियमों में एक ही मत है। अन्य भी बहुत से विषयों पर दोनों मतों में समानता है, किन्तु यहां तो विस्तार भय से थोड़े से उदाहरण दिये गए हैं।
अब कुछ एक ऐसे उदाहरण दिये जाते हैं जिनसे पाठकों को पता चलेगा कि बहुत से विषयों पर जैन और वैदिक मत में विचार भिन्नता है। उन उदाहरणों से पाठकों को यह भी पता चलेगा कि जैन राजनीति किस प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए हुए थी और किस प्रकार उस के अनुयायी उस पर अमल करते थे । जैनराजनीति में सब से बड़ी विशेषता हमें यह मिलती है कि उचित दण्ड के विधान के साथ २ 'अहिंसा परमोधर्म.' के सिद्धान्त की उपेक्षा नहीं की गई। जैन राजा के दण्ड में कटुता के साथ २ दया के माधुर्य का अंश भी हमें मिलता है।
लघ्वहनीति में लिखा है कि स्त्री, ब्राह्मण या तपस्वी इन से कोई बड़ा भारी अपराध भी हो जाय तो भी इनका न तो कोई अंग च्छेद ही करवाना चाहिये और न ही उनको मृत्युदण्ड ही देना चाहिये। देश से बाहिर निकालना ही इन के लिये पर्याप्त है ! इस के विपरीत मनु बी ने लिखा है:
गुरु वा बालवृद्धं वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । श्राततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।
मनु० अ०८. श्लो० ३५०. अर्थात् - यद गुरु, बालक, वृद्ध अथवा बहुत शास्त्रों का जानने
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