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धिरत्यु ते ऽजसो कामी जो तं जीविय कारणा । वन्तं इच्छासि श्रावेॐ से, यंते मरणं भवे ॥
अतरा० अ० २२ श्लोक. ४१. ४२ अर्थात्:- हे रथनेमि यः तुम रूप में साक्षात् कामदेव लीला में नल कुबेर या इन्द्र भी होतो भी मैं तुम्हारी कामना नहीं कर सकती। तुम्हें धिक्कार है कि तुम वासनामय वमन किये हुए भागों को त्याग कर उन्हें फिर भोगने की इच्छा कर रहे हो। इस प्रकार के पतित जीवन से तो तुम्हारा मरना ही अच्छा है।
यह है जैन नारियों के सतीत्व या शील की महानता और धार्मिक जीवन की उच्चता । इस प्रकार के नारी के सतीत्व रक्षण के उदाहरण अन्यत्र कम ही देखने में मिलते हैं । धारिणी और राजीमती इन दोनों महिलाओं के उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि दोनों ने केवल अपने शील की ही रक्षा नहीं की किन्तु चरित्र से भ्रष्ट होते हुए योद्धा और माधु को भी अपने सतीत्व की शनि से सन्मार्ग की ओर लगाया।
जैन शास्त्रों में विधवा विवाह की प्रथा के उदाहरण मेरे देखने में नहीं आए। इस से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि आज कल की तरह प्राचीन जैन समाज में विधवात्रों की संख्या कम रही है।
और इस लिये विधवा विवाह की जटिल समस्या उन के सामने नं पाई हो । जो थोड़ी बहुत विधवाएं होती होंगी वे धार्मिक जीवन व्यतीत करती होंगी। विधवाओं की संख्या कम होने के कुछ प्रमाण तो स्पष्ट ही हैं । जिस जाति में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित हो वा कुजोड़ विवाह होते हों वहां विधवात्रों की संख्या अधिक बढ़ने का डर रहता है। जैन समाज सौभाग्य वश इन दोनों कुप्रथाश्रों से मुक्त रहा है। बाल विवाह तो जैन धर्म में निन्द्य समझा जाता था । और कुजोड़ विवाह का प्रभ
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