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बाकी के चार महावत ही मान लिये जाए तो जैनधर्म, जैनधर्म नहीं रह जाता। अतएव अहिंमा महाव्रत को यदि शेष चार महाव्रतों का राजा मान लिया जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । भगवान् महावीर के उपदेश से भी यही पता चलता है कि शेष चारों महाव्रता का पालन भी अहिंमा महाव्रत की पूर्णता की ओर ले जाने वाला है ! इस प्रकार जैनधर्म अहिंमा प्रधान धर्म है और इसी अहिंसा के प्रचार
और पालन के कारण जैनधर्म विश्व के धर्मों में एक ऊँचा स्थान प्राप्त करता है।
अहिंमा शब्द की परिभाषा मब धर्मों के प्राचार्यों ने अपने २ दृष्टिकोण से भिन्न २ प्रकार से की है । जैनाचार्यों की परिभाषा के अनुमार हिंसा से बचने का नाम अहिमा है। वे कहते हैं कि कषाय या प्रमाद के वशीभूत होकर मनसे, वाणी से या कम से दूमरे प्राणो को दुःख पहुंचाना या प्राणों से विमुक्त करना हिंसा होती है। जो प्राणी ऐमा नहीं करता वह अहिंमाधर्मका पालन करता है। हिंसा दो प्रकारकी होती है। पहली भावहिमा और इमरी द्रध्यहिमा। आत्मा में गग, द्रुप, काम. क्रोध, मान, माया आदि विकृत भावों का 'उत्पन्न होना भाव हिमा है। इन कपायों से अात्मिक ज्ञान को महान् हानि पहुँचती है। इन्हीं कपायों के वशीभूत होकर जब कोई प्राणी दूसरे प्राणी का वध्र कर देता है तो वह द्रव्य हिंमा बन जाती है। जैन सिद्धान्त के अनुमार यह दोनों प्रकार की हिंसा त्याज्य है। वास्तव में देखा जाय तो हिंमा ही समस्त दोषों या पापों की जनन' है । हिंसा से बढ़कर : मंमार में कोई पाप नहीं। असत्य भाषण, चौर्यकर्म और दुराचरण श्रादि सब हिंसा की ही भिन्न २ शाखाएं हैं। अतएव हिंसा के त्याग से ही मानव जीवन सुखी बन सकता है । भगवान् महावीर स्वामी ने विश्न को अहिंसा का सन्देश देते हुए कहा था:-.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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