Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha
Author(s): Purushottam Chandra Jain
Publisher: P C Jain

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Page 222
________________ ( २०३ ) प्राचीन नहीं किन्तु बहुत पीछे का है। श्रमण-संस्कृति वास्तव में कर्ममूनक होने के कारण विवाह के लिये जातिपाति का कोई प्रतिबन्ध उपस्थित नहीं करती। विवाह में नातिबन्धन की प्रथा बहुत पीछे की है । शास्त्रों में असवर्ण विवाहों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । बड़ेबड़े प्रतिष्टित महापुरुष भीलों और म्लेच्छों आदि तक की कन्याओं से निस्संकोच विवाह कर लेते थे। एक ही गोत्र और एक ही परिवार में भी विवाह हो सकता था। श्री नेमिनाथ के चचा वसुदेव जी ने अपने चचाज़ाद भाई उग्रसेन की लड़की देवकी से विवाह कर लिया था।* मामा और फूफी की लड़की से विवाह तो ग्राम प्रचलित था। दाक्षिणात्य ब्राह्मणों में तो इस प्रकार के विवाह अाज भी प्रचलित हैं। परन्तु इस प्रकार के विवाह उस समय भी सार्वदेशिक नहीं थे। इसी कारण सोमदेव सूरि ने लिखा है:-'देशकुलापेक्षो मातुलसम्बन्धः । विवाहों में सबसे उत्तम स्वयंवर विवाह को माना ज ता था । श्रादि पुराण में विवाह विधान के प्रकरण में स्वयंवर विवाह को ही सर्वश्रेत्र बताया है। जैसे:-सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्टो हि स्वयंवरः ।। अर्थात्-विवाह के जितने भेद हैं, उनमें स्वयंवर ही सबसे श्रेष्ठ है और श्रुति-स्मृतियों में इसकी महिमा है। अनादिकाल से विवाह का यही उत्तम मार्ग चला आता है। __स्वयंवर में गई हुई कन्या अपनी रुचि के असुमार वर को चुनती है:-कन्या वृणीते रुचितं स्वयंवरगता वरम् । * विवाह समुद्देश्य पृ० १८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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