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सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्व हानिर्न यत्र न व्रत दूषणम् ।।
( यशस्तिलक) अर्थात्-गृहस्थों के लिये लौकिक और पारलौकिक दो प्रकार के धर्मों का विधान है। लौकिक धर्म लोकाश्रित अर्थात्-लौकिकजनों की देशकालानुसारिणी प्रवृत्ति के अधीन और पारलौकिक अागमाश्रित अथवा प्राप्तप्रणीत शास्त्रों के अधीन बतलाया है ।* सांसारिक व्यवहारोंके लिये अागम का प्राश्रय लेना भी बहुत आवश्यक नहीं समझा गया
और साथ २ यह भी प्रतिपादन किया है कि जैनियों के लिये वे सम्पूर्ण लौकिक बिधियां प्रमाण हैं जिनसे उनकी धार्मिक श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ती हो और न व्रतों में ही कोई दूषण लगता हो ।
___ इस प्रकार श्रमण-संस्कृति में गृहस्थाश्रम का स्थान बहुत ऊँचा और आदरणीय है।
विवाह । विवाह करना गृहस्थ का परम कर्तव्य है । श्रादिपुराण में भगवजिन सेनाचार्य ने लिखा है कि जब युग के प्रारम्भ में भगवान् ऋषभदेव ने विवाह के लिये कुछ अनिच्छा प्रकट की तो उनके पिता नाभि राजा ने उनको समझाते हुए ये वचन कहे:
त्वामादिपूरुषं दृष्टवा लोकोप्येवं प्रवर्तताम् । महतां मार्गवर्तीन्यः प्रजाः सुप्रजसो ह्यमूः ।। ६१ ।। ततः कलत्रमत्रेष्टं परिणेतु मनः कुरु । प्रजासंततिरेवं हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥ ६२ ॥ पजासंतत्यविच्छेदे तनुते धर्मसंततिः ।। * विवाह समुद्देश्य पृष्ठ २० ।
आदि पुराण पर्व १५ ।
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