Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha
Author(s): Purushottam Chandra Jain
Publisher: P C Jain

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Page 218
________________ ( १६६ ) जैसे: सामाजिक जीवन । वैदिक धर्म के सामाजिक जीवन में चार अाश्रमों का विधान है । जैसे:-ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा । ___एते गृहस्थ प्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः ।। मनु० ६।८७ अर्थात्-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, तथा सन्यासी ये चारों अाश्रम अलग २ होने पर भी गृहस्थाश्रम से ही जायमान होते हैं । ___ठीक इसी प्रकार का मन्तब जैन धर्मग्रन्थों में भी मिलता है । ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तर शुद्धितः ॥ जिनसेन-अांदि पुराण । अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धि के लिये हैं । यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जिस प्रकार वैदिक धर्म में अाश्रम व्यवस्था पर जोर दिया है और कार्यरूप में उसका पालन भी किया गया है इस प्रकार जैन धर्म में नहीं। जैनागमों ने चार तीर्थों के श्राचार विचार पर ही जोर दिया है। जैन संस्कृति के अागम तथा अन्य धर्म ग्रन्थ तीर्थ विषयक कर्मकाण्ड से ही भरे हुए हैं। श्रमण संस्कृति में कठिन तपस्या करने के लिये चतुर्याश्रम तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं किन्तु जीव का संस्कार यदि उत्कृष्ट है तो किसी अवस्था में भी वह तपश्चर्या का अधिकारी है। मेरे विचार से बैन पुराणों में जो श्राश्रम व्यवस्था का विधान है यह बहुत पीछे का है और यह जैन संस्कृति की अपनी चीज़ नहीं किन्तु वैदिक धर्म का ही जैन संस्कृति पर प्रभाव है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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