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किया-हे ईश, मैं परम पूजनीय जो पाप हैं उनकी इस अाना के विषय में फिर जो कुछ कहना चाहता हूं, उसका कारण जन्म-मरण के दुःखों का जंजाल ही है। इन जीवों को इष्टानिष्ट के वियोग संयोग से यदि दुष्ट पीड़ायें न होती तो जिनेन्द्रचन्द्र द्वारा धारण किये इस मत्य श्रोर महाकठिन महावतों को कौन ग्रहण करता ? यदि गृहस्थ रहने पर भी विचित्र दुःख देने वाला जन्म-मरण का चक्र मिट जाता है तो फिर पाप जैसे विवेकी महापुरुषों का तप में परिश्रम करना वृथा हो ठहरा । जिन-दीक्षा में जिनका मन लगा हुआ है उन उदार चरित्र राजा के ये वचन सुनकर मुनिवर को यह निश्चय होगया कि इन्होंने सोच विचार कर यही दृढ़ निश्चय कर लिया है। तब उन्होंने राजा की प्रार्थना को स्वीकार किया। परिवार के बन्धन से मुक्त. राजा ने मुनि की अनुमति पाकर अपने पुत्र को वह निष्कण्टक राज्य दे दिया।
उसके बाद उन्होंने परिग्रह छोड़ कर संयम का अलङ्कार रूप तप ग्रहण कर लिया। घोर तप करते हुए भयशून्य राजा पुरबाहर पयङ्कासन से स्थित रहकर हेमन्त की रातें बिताने लगे। धैर्य-वस्त्रधारी राजा वहीं पाले और ठण्डी हवा के वेग को सहते थे। भयानक सैंकड़ों उल्कापातों से दुस्सह और घोर घन-घटाओं से अन्धकार फैला देने बाली वर्षाऋतु की रातों में क्षमताशाली वे पेड़ों की जड़ में बैठे हुए मूसलाधार पानी सहते थे। वे गर्मियों में सूर्य के सामने खड़े रहते थे । तपी हुई सूई के समान शरीर में चुभने वाली सूर्य की किरणों के लगने पर भी वे ध्यान से नहीं डिगे। कर्त्तव्यकाम कितना ही कठिन क्यों न हो उसे करने के लिये सजन लोग दृढ़ रहते हैं।"
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