Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha
Author(s): Purushottam Chandra Jain
Publisher: P C Jain

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Page 219
________________ ( २०० ) गृहस्थ धर्म । श्रमणधर्म निवृत्ति और तपप्रधान धर्म है इस कारण यह न समझना चाहिये कि इसमें गृहस्थमार्ग की उपेक्षा की गई है और उसका इसमें श्रदर नहीं है । वैदिक संस्कृति के समान श्रमण संस्कृति में भी गृहस्थाश्रम को धर्म की आधार शिला माना है । गृहस्थ के बिना धर्म की प्रवृत्ति और प्रगति नहीं हो सकती । केवल सिद्धान्त विधान मात्र से श्रात्मशुद्धि प्रधान तर की क्रिया नहीं हो सकती और नहीं केवल श्रागम ज्ञान के बोध से आचार विचार का पालन ही हो सकता है किन्तु सब प्रकार की धार्मिक क्रियायों के लिये वाह्य साधनों की श्रावश्यकता रहती है जिनको गृहस्थ पूरा करता है। यही कारण है कि यत्र तत्र जैन धर्मग्रन्थों में 'गृहस्था धर्म हेतवः' और 'श्रावका मूल कारणम्' जैसे गाक्य मिलते हैं। इसी सत्य की पुष्टि वैदिक महर्षि भी करते हैं: - सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृति विधानतः । गृहस्थ उच्यते श्र ेष्ठः स त्रीनेतान् विभर्ति हि ॥ मनु० ६८६ श्रर्थात् समस्त श्राश्रमों में वेद और स्मृति की बताई हुई विधि के अनुसार चलने वाला गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है । क्योंकि गृहस्थ ही इन तीनों श्राश्रमों की रक्षा करता है । जैन धर्मग्रन्थों में गृहस्थ के लिये दो तरह के धर्मों का विधान मिलता है। वे हैं लौकिक और पारलौकिक । जैसे: द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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