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कुलीनमकुलीनं वा क्रमोनास्ति स्वयंवरे ॥* अर्थात्-स्वयंवर में गई हुई कन्या कुलीन और अकुलीन का विचार न करके अपनी इच्छा के अनुसार वर को चुनती है ।
जैनकाल में बहु विवाह की प्रथा अवश्य प्रचलित थी किन्तु परस्त्री की अोर दृष्टि डालना बहुत बुरा समझा जाता था। लोग अपनी २ प्रियतमात्रों से ही सन्तुष्ट रहते थे।
श्रमण-संस्कृति के प्रवर्तक ।
श्रमण संस्कृति के श्रादि प्रवर्तक कौन थे, वे कत्र हुए और किन-किन परिस्थितियों में उन्होंने इसकी नींव रक्खी इसका इतिहास से कुछ पता नहीं चलता। हां उपलब्ध 'आगमग्रन्थों' तथा अन्य साहित्य से यह स्पष्ट है कि नाभिपुत्र आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव स्वामी श्रमण-संस्कृति के महान् समर्थक थे। उन्होंने इसका मर्वत्र प्रचार किया। उन्होंने ही लोगों के लिये रहन-सहन के नियमों को बनाया और उन्हें पालन करने का ढंग सिखाया। जङ्गली जानवरों से प्रात्म-त्राण करने के लिये उन्होंने लोगों को शस्त्र बनाना सिखाया,
और स्वयं तनवार हाथ में लेकर उन्होंने लोगों को उसका प्रयोग करना सिग्वाया । कर्ममूलक वर्ण व्यवस्था भी उन्होंने ही बान्धी।
आदिराज ऋषभदेव ने ही कर्म को छे भागों में बांटा-(१) युद्ध, (२) कृषि, (३) साहित्य, (५) शिल्प, (५) वाणिज्य और (६) व्यवसाय । न्यायपूर्वक प्रजापालन के महत्त्व को भी उन्होंने ही तत्कालीन रानात्रों को समझाया। उन्होंने तत्कालीन लोगों को लिखना पढ़ना सिखाया और कृषि के योग्य लोगों को कृषि करने का दंग बताया।
* जिनदास हरिवंश पुराण ।
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