Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha
Author(s): Purushottam Chandra Jain
Publisher: P C Jain

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Page 199
________________ ( १८० ) स्थान पर या उम का पर्याय 'धर्म निकाय' शब्द मिलता है जिसे बुद्ध का शरीर भी कहते हैं । समता का बोध भी इसी से होता है । बौद्धधर्म ग्रन्थों में धर्म निकाय या बुद्ध का स्वरूप इसी प्रकार वर्णन किया है । बुद्ध काय की यह प्रकृति है कि वह दृश्यमान जगत् के नानात में स्वयमेव व्यनित्वरूप धारण करता है, वह किसी विशेष अस्तित्व के बाहर स्थित नहीं रह मकता, बल्कि वह उम में निवास करके उसे जीवन प्रदान करता है। जब हम दृश्यमान संमार के पदार्थों की विभिन्नतानों को मूक्ष्म दृष्टि से देवने है. तो हमें सर्वत्र धर्मकाय के सिवाय और कुछ भी दखाई नहीं देता और इस तरह से हमें वस्तुओं की ममता स्पष्ट दिखाई देने लगती है। दृश्य जगत् की यथार्थता और नानात्व को मानने के साथ २ बौद्धधर्म को यह मान्यता है कि जितने भी पदार्थ हमें दिखाई देते हैं वे मब एक अन्तिम कारण से उत्पन्न होते हैं जो सर्वशक्तिमान् , सर्वज्ञ और सर्वप्रिय है । यह जगत् उस कारण, श्रात्मा अथवा जीवन का व्यन स्वरूप है। भेद के सद्भाव में भी सांसारिक तभी पदार्थ परमतत्त्व के स्वभाव से युक होते है। अतएव ईश्वर जो इस जगत् में नहीं है वह श्रमत है; और जगत् जो ईश्वर में नहीं है वह मिथ्या है। संसार के सब पदार्थ एक ही तत्त्व में लीन हो जाते हैं और एक ही तत्त्व अनेक पदार्थो के रूप में कर्म करता है । अतएव अनेक एक में है और एक अनेक में है। संमार और परमात्मा के विषय में बौद्धों का यही मिद्वान्त है। जिस प्रकार समुद्र की अनेक तरंगें और लहर लहराती और उमंगित होती हुई केवल एक जलके ही नित्य स्वरूप की ही बिभिन्न गतियां हैं इसी प्रकार संमार की सब क्रियायें भी भिन्न २ रूप से भामने पर भी एक ही तत्त्व की प्रतिविम्चमात्र है। इस से विज्ञ पाठक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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