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तत्त्वों की उपेक्षा करके प्राध्यात्मिक तत्वों की ओर बढ़ने की ही मानब जाति को प्रेरणा करते थे। श्रात्मा की उन्नति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष था। संसार में चित् और अचित् या दूसरे शब्दों में चेतन और जड़ दो तत्व है । दोनों का उचित विचार ही विवेक है । चेतन का स्वभाव है कि वह जड़ पदार्थों को अपने काम में लाता है । जीवों की दो कोटियां हैं--मुक्त और संसारी । संसारी जीवों में भी कुछ मन वाले, और कुछ मन रहित । त्रस और स्थावर ) है ! मुक्ति का साधन धर्म तत्व है और मुक्ति में प्रतिबन्ध डालने वाना तत्व अधर्म है। जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये मात तत्व हैं । पुण्य और पाप को मिला कर नौ भी माने जाते हैं। जो बन्ध का हेतु है वह अाश्रव है । काया, बागी और मन में अाश्रव स्फुरित होता है ? मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण बीव में अाश्रव के द्वारा उस का पुद्गल से योग होता है; यह सम्बन्ध ही बग्ध है। श्राश्रवरूप संसार प्रवाह को ढकने वाला संवर है। यही संवर मोक्ष का कारण है । सम्यक दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन मोक्ष के मार्ग है । ज्ञान और दर्शन तो आत्मा के अनादि अनन्त निब गुण है। मोक्ष प्राप्ति के बाद भी ये श्रात्मा के साथ ही रहते हैं ! दर्शन और ज्ञान दोनों का नित्य सम्बन्ध है। चरित्र दोनों की पूर्णता की ओर प्रवृत्ति कराता है । इन तीनों के प्रभाव से बब सब कर्मों का क्षय हो जाता है तो आत्मा मुक्त हो जाता है। तब आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप बन जाता है । श्रमण संस्कृति सदा से मानव को इस सच्चिदानन्द स्वरूप मोक्ष की और बढ़ने की ही प्रेरणा करती आई है।
पञ्च महाव्रत । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह, ये श्रमण
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