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के मषियों को इस प्रकार के भौतिक विकास निरर्थक प्रतीत हुए । यह बात असत्य है कि उनकी बुद्धि अाधुनिक आविष्कारों तक पहुंच नहीं सकती थी। वास्तव में वे भौतिकवाद के दुष्परिणामों से भली. भांति परिचित थे इस कारण वे उनकी ओर ध्यान ही नहीं देते थे । इसी सत्य की पुष्टिं भारतीय तथा अन्य सरकृतियों के मर्मज्ञ श्री अरविन्द जी ने इस प्रकार की है*:
_ 'याध्यात्मिकता ही भारतीय मन की मुख्य कुञ्जी है; अनन्तता की भावना उसकी सहजात भावना ह । भारत ने श्रादिकाल में ही यह देख लिया और अपने तर्क बुद्धि के युग में तथा अपने बढ़ते हुए अज्ञान के युग में भी उसने वह अन्तष्टि कभी नहीं खोई कि जीवन को केवल उनकी वाह्य परिस्थिति के प्रकाश में ही ठीक-ठीक नहीं देखा जासकता और न वह केवल उन्हीं की शक्ति से पूरी तरह बिताया जासकता है । वह प्राकृतिक नियमों तथा शक्तियों की महत्ता के प्रति जागरूक था, उसे भौतिक विज्ञानों के महत्व का सूक्ष्म बोध या; वह माधारण जीवन की कलाओं को सङ्गठित करना जानता था। परन्तु उसने यह देखा कि भौतिकता को अपनी पूरी सार्थकता तब तक नहीं प्राप्त होती, जब तक वह अतिभौतिक से ठीक सम्बन्ध नहीं स्थापित कर लेती; उसने देखा कि संसार की जटिलता की व्याख्या मनुष्य की वर्तमान परिभ.पात्रों से नहीं की जासकती और न मनुष्य की स्थूल दृष्टि से समझी जासकती है, और यह कि विश्व के मूल में कुछ अन्य शक्तियाँ भी हैं तथा स्वयं मनुष्य के भीतर भी कुछ अन्य शक्तियां हैं, जिन्हें वह साधारणतया नहीं जानता।'
इस प्रकार सामर्थ्य के सद्भाव में भी प्राचीन प्राचार्य भौतिक* देखो क याण का हिं० स• अं० पृ० २०७ ।
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