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संस्कृति के पांच प्रधान महाव्रत हैं । इन का विधान तो येन केन रूपेण भारत के प्रायः सभी धर्माचार्यों ने किया है परन्तु श्रमण धर्म इन के पालन पर विशेष ही ज़ोर देता है। इन पांचों के पालन करने से ही मानव मानवता की और कदम बढ़ा सकता है। किसी भी बीव की मन, वचन और काया से हिंसा न करने का नाम ही अहिंसा है। अहिंसा श्रमण संस्कृति के प्राण हैं। इस का विस्तृत विवेचन 'अहिंसा परमो धर्मः के प्रकरण में कर दिया है ।
सत्य । सत्य नामक दूसरे महाव्रत का अहिंसा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सत्य पर चलता हुआ मानव ही पूर्णरूप से अहिंसा महाव्रत का पालन कर सकता है । सत्य बोलने और सत्याचरण करने आदि से प्रात्मा का उत्थान होता है। सत्य से प्रात्मा को बल मिलता है और
और असत्य से प्रात्मा पतन की ओर जाता है। सत्य बोलने वाला व्यक्ति सदा निश्शक और निर्भय रहता है और इस के विपरीत असत्यभाषी सदा पोल खुलने के डर से शंकित और सभय रहता है। असत्य की सदा अन्त में हार होती है और सत्य की बात होती है। 'सत्यमेव जयते ना नृतम् ' इस महावाक्य को कभी नहीं भूलना चाहिये। जिस समाज, धर्म या जाति के लोग सत्य की उपेक्षा करते हैं वह समाज, धर्म या जाति कभी भी विवेक और नैतिकता के ऊँचे स्तर तक नहीं एहुच सकती। अतएव सामाजिक जीवन को ऊँचा बनाने के लिये सत्यवादिता परमावश्यक है।
अस्तेय । अस्तेय अर्थात् चोरी न करमा। बो.वस्तु अपनी भी उस पर
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