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भी परमावश्यक है । संस्कार का अर्थ है किसी वस्तु को शुद्ध करना या उसके आन्तरिक प्रकाश को प्रकट करना । निस्सन्देह संस्कारों की उत्पत्ति और सम्बन्ध वाह्य जगत् से भी बहुत है किन्तु वास्तव में संस्कारों का उद्देश्य मानसिक और श्राध्यात्मिक होत है । जब हम किसी मनुष्य को कहते हैं कि वह सुसंस्कृत है तो हमारा श्रभिप्राय उसकी वह्य बातों से नहीं होता किन्तु हम देखते हैं कि उसका मन और आत्मा कितने ऊपर उठे हुए हैं या विकसित हो चुके हैं । यही कारण है कि सुसंस्कृत मनुष्य मन और आत्मा के उत्थान के कारण सदा सत्कर्मों की ओर ही प्रवृत्त होता है । इस प्रकार सस्कृति मानव का आन्तरिक गुण है और इसके विकास से ही मानव जाति के सारे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक व्यवहार सुचारु रूप से चल सकते हैं । संस्कृति ही मानव को मानवता की ओर ले जाती है ।
संस्कृति
और सभ्यता ।
बहुत से सजन इन दोनों शब्दों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करते हैं किन्तु वास्तव में दोनों में महान् भेद है । संस्कृति मानव की अान्तरिक वस्तु है और सभ्यता बाहर की । संस्कृति मानव को श्राध्यात्मिकवाद की ओर ले जाती है और सभ्यता प्रकृतिवाद की ओर । श्रतएव यह श्रावश्यक नहीं कि जो लोग सभ्य हों वे सुसंस्कृत भी अवश्य होंगे । श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यदेव परिब्राजकाचार्य ने इसका बड़ा सुन्दर विवेचन किया है * : -
" जब हम यह कहते हैं कि जर्मन जाति सभ्य है, तो इसका
# * देखो कल्याण का हिन्दू संस्कृतिक पृ० २३४ ।
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