Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha
Author(s): Purushottam Chandra Jain
Publisher: P C Jain

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Page 200
________________ ( १= १ ) भली प्रकार समझ गए होंगे कि जैसे अद्वैतवाद में नादिनित्य ब्रह्म ... रूप तत्त्व की सत्ता मानी है और संसार के सत्र आत्मा उमी एक तत्त्व के प्रकाश है और उस से भिन्न है ठीक उसी प्रकार वौद्धधर्म के उपर्युक्त सिद्धान्त में भी नानात्व का सद्भाव एक ही तत्व से माना है जो नानात्व से भिन्न नहीं है । एकाग्र ध्यान की प्रधानता । बौद्धधर्म की एक और विशेषता ध्यान देने योग्य है । इस में किसी वस्तु को जानने के लिये उस के लिये तर्क, दर्शन या वादविवाद को महत्व नहीं दिया जाता किन्तु अपने एकाग्र ध्यान से उसे समझने अनुभव में न तर्क करना या आई हुई वस्तु पर उस उसे विवाद का विषय पर जोर दिया जाता है । किसी के अस्तित्व या अच्छेपन पर बनाना, या किसी तत्त्व पर केवल श्रद्धा के भाव रखना सर्वथा मूर्खता मानी है | यदि ईश्वर है तो उस के लिये प्रश्नोत्तर करना व्यर्थ है किन्तु मनुष्य को चाहिये कि वह स्वयं अपने अनुभव से जो ध्यान द्वारा श्राता है उसे समझे । यदि आत्मा ही परमात्मा है तो इस भावना को ध्यान से कार्यरूप में परिणत करना चाहिये केवल 'अमुक वस्तु ऐसे है' ऐसी श्रद्धा या विश्वास करने से कोई लाभ नहीं । बौद्धदर्शनों में अधिकतर जोर ध्यान पर ही दिया है । वौद्धधर्म की मान्यता है कि धर्म का अर्थ अनुभव करना है, प्रदर्शन करना नहीं । इस लिये धार्मिक पुरुषों को तत्व की जिज्ञासा करनी चाहिये, छाया की नहीं । प्रकाश की गवेषणा करनी चाहिये, प्रतिबिम्ब की नहीं । अतः वास्तविक तत्व की खोब और ज्ञान के लिये ध्यान को ही प्रधानता देनी चाहिये विवाद और तर्क को नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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