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बौद्ध धर्म में इसका अर्थ-वासना और अज्ञानादि विषयों की ज्वाला को बुझा देने का नाम ही निर्वाण है। व्यावहारिक सत्य का अनुभव होने के पश्चात् पारमार्थिक-सत्य की खोज की जाती है और इसी सत्य को अधिगत करना ही 'निर्वाण' प्राम करना है।
सर्व प्रपश्चानामुपशमः । अर्थात्-सब प्रपञ्चों का नाश करना ही निर्वाण प्राप्त करना है । निर्वाण के मुख्य दो भेद हैं:-(१) उगधिशेष और (२ अनुपाधिशेष । निर्वाण की प्राप्ति तृष्णा के उच्छेद से होती है । सांख्यशास्त्र का 'वासना राहित्य' और बौद्धों का तृष्णा उच्छेद ये मिलते जुनते ही हैं। चार आर्यसत्य माने गए हैं जिनके अनुभव से ही तृष्णा का नाश होता है। ये चार आर्य सत्य दुःख, समुदय निरोध और प्रतिपत्ति हैं । परिदृश्यमान जगत् में सब दुःख ही दुःख है। जीवन में दुःख के सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। इस दुःख का उदय जीव की वासना से होता है। इसका निरोध हो सकता है और इसकी प्रतिपत्ति 'अष्टांगिम र्ग' और दश शीलादि से होती है | वे 'अष्टांगिमार्ग' ये हैं:-(१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३ सम्यक् वाक् (४) सम्यक् कर्म, (५) सम्यक् प्राजीव, (६) सम्यक व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक समाधि । इसी प्रकार नीचे दस भाव इस मार्ग के बाधक हैं: - (१) सत्काय दृष्टि, (२) विचिकित्सा, (३) शीलवृत्त परामर्श, (४) काम, (५) प्रतिघ, (६) रूपराग, ७) अरूप. राग, (८) मान, (६) औद्धत्यं और (१०) अविद्या । ऐसे ही दस ही निषेधात्मक शिक्षाएं हैं:-(१) प्राणातिपात, (२) अदत्ता दान, (३) अब्रह्मचर्य, ४ मृषावाद, (५) पैशुन्य (६) औद्धत्य, (७) वृथा प्रलाप, (८) लोभ, (६) द्वेष और (१०) विचिकित्सा । बौद्ध धर्म से
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