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पुकारते हैं" वसिष्ठ ! यह कभी सम्भव नहीं कि वे ब्राह्मण बो वेद पढ़े हुए हैं परन्तु उन गुणों का तिरस्कार करते हैं जिनसे मनुष्य वास्तव में ब्राह्मण बनता है अंर उन गुणों को धारण करते हैं जिनसे मनुष्य अब्राह्मण बनता व केवल स्तुति और प्रार्थना के कारण मृत्यु के पश्चात् जब शरीर छूट ज ता है ब्रह्म को प्राप्त हो सके।"
'अच्छ। वसिष्ठ ! क्या यह सम्भव है कि ये ब्राह्मण को वेद पढ़े होने पर भी अपने हृदय में क्रोध और द्वेष धारण किए हैं, जो पापी और असंयमी है मरने के पीछे शरीर छोड़ने पर उम ब्रह्म को प्राप्त कर सकें जो क्रोध, द्वेष और पाप रहित है और संयम स्वरूप है।"
इस प्रकार महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व और नास्तित्व के वाद-विवाद में न पड़ कर क्रोध और द्वेष के त्याग पर और संयम के पालन पर अधिक जोर देते हैं । वेदों की उपेक्षा और ब्राह्मणों की निन्दा उन्होंने इस कारण की कि तत्कालीन ब्राह्मण वेदों की बाड़ लेकर क्रोध, द्वेष, असंयम और हिंसा में प्रवृत्त होगए थे और ब्राह्मणत्व के वास्तविक स्वरूप को भूल चुके थे।
वैदिक धर्म के समान ईश्वर के अस्तित्व का प्रचार न करके महात्मा बुद्ध ने अात्मसंयम, प्रात्म सुधार, मानव जाति तथा प्राणिमात्र के प्रति सुहृद्भाव, शुभकर्मों का आचरण और मानसिक पवित्रता के प्रचार पर जोर दिया। अब नीचे पाठकों के ज्ञानार्थ बौद्ध धर्म के मुख्य सिद्धान्तों या मन्तव्यों पर संक्षेप से प्रकाश डाला जायगा।
बौद्ध धर्म में निर्वाण । निर्वाण शब्द का अर्थ वेदान्तियों का ब्रह्मानन्द नहीं है।
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