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वैदिक युग के उदय काल से लेकर अब तक जगत्, जीव और परमात्मा इन तत्वों की खोज में मानवी बुद्धि कितनी प्रयत्नशील रही है यह भी उपयुक्त भिन्न २ सिद्धान्तों के वर्णन से स्पष्ट होजाता है। वाह्य और अान्तरिक विश्व के गूट प्रश्नों को समझने के लिये मानव का मस्तिष्क सदा से परेशान होता रहा है और उसने अपनी उपज के अनुसार उन प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया और ज्ञान की ग्रन्थियों को कैसे सुलझाया यह विश्व के इतिहास से और अनेक धर्मों के धर्मग्रन्थों से भलीभांति समझ सकते हैं।
श्रमण-संस्कृति में ईश्वर । जैनधर्म वैदिकधर्म के समान ईश्वर को अनन्त शक्ति वाला, सर्वदानन्दमय, सर्वज्ञ और अविनाशी तो मानता है किन्तु उसको जगत् का कर्ता और नियन्ता नहीं मानता है। जैनदर्शन प्रात्मा को अनादि मानता है। जिस प्रकार वेदान्त दर्शन में अविद्या के प्रावरण के दूर होते ही जीवात्मा ब्रह्मरूप बन जाता है इसी प्रकार जैनदर्शन के अनुसार जीवात्मा से कर्म का प्रावरण दूर होते ही वह ईश्वररूप हाबाता है। आत्मा राग द्वेषादि से लिप्त होने के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और अपने भिन्न २ कर्मों के परिणामस्वरूप अनन्तानन्त योनियों में जन्म लेता रहता है। जब उमकी विवेक शक्ति विकसित होजाती है. वह अपने सत्कर्मों द्वारा राप द्वेष के संस्कारों को नष्ट कर डानता है और कमब-धनों से मुक्त हो जाता है। वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है और फिर वही मुक्तात्मा सर्वज्ञ, अानन्दरूप और सवशक्तिमान् होकर परमात्माद को प्राप्त होता है। जैनदर्शन के अनुसार ईश्वर जंसी स्वतन्त्र रूप से कोई शक्ति नहीं है किन्तु ईश्वर के समग्र गुण बीतमात्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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