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कर्मनार्ग से, भक्तिमार्ग से, योगमाग से · श्री ज्ञानमार्ग से उपास्य है । श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं दर्शन भी उसकी उपासना के प्रकार हैं । सवेकर्मप्रवर्तक उस ईश्वर के अनुग्रह के बिना मनुष्य का कोइ कम भी सफल नहीं हो सकता। नैयायिका का कहना है कि कर्म अचेतन है अतएव उसका शकि का भी अचेतन होना स्वाभाविक है। अत: किसी चेतन के अधिष्ठातृत्व के अभाव में कोई भी प्राणी किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मफल देने के लिये ईश्वर की सत्ता का मानना परमावश्यक है । महर्षि गौतम लिखते हैं: -
ईश्वरः कारणं पुरुषकर्म फलदर्शनात् । ( गौतम सूत्र ) । अर्थात्-पुरुषों के अनेक कर्मफलों को देखते हुए हमें ईश्वर की कारणता का स्पष्ट ज्ञान होजाता है। इस मान्यता के विद्वानों का कहना है कि जीवात्मा में अधर्म, मियाज्ञान और प्रमाद ये दोष होते हैं । जिस आत्मा में ये सब नहीं पाए जाते किन्तु इनके स्थान में धर्मशान
और समाधि पूर्णरूप से पाई जाती है. वैमा अात्मा ही ईश्वर है । सन्तान के लिये जिस प्रकार. पिता यशुर्थवादी, हितोपदेष्वा और दयापय है उसी प्रकार ईश्वर भी सब भूतों के लिये पितृतुल्य है।
इस प्रकार, वेदः की मान्यता के अनुसार ईश्वर अनादि है और सृष्टि का कर्ता है। वेदान्त में ब्रह्म और माया की व्यापकता, सांख्य में प्रकृति और पुरुष की प्रधानता, और न्यायशास्त्र में पुरुष के कर्मफलप्रशनार्थ ईश्वर की कारणता श्रादि संक्षिप्त विवरणसे पाठकों को भली प्रकार पता चल गया होगा कि वैदिक धर्म की इन भिन्न २ शाखात्रों में ईश्वर को और विश्व के स्वरूप को किस प्रकार समझा है और उसका प्रतिपादन किया है। सबके सिद्धान्तों के मार्ग भिन २ होते हुए भी सब ईश्वरीय सत्ता रूपी एक ही लक्ष्य की ओर जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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