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स्पष्ट करके लिखा गया है। अतः कट्टरपन्थी सजनों को उसे ध्यान पूर्वक विवेक से समझना और जीवन में उतारना चाहिये ।
हिंसा यदि जीवन की एक वास्तविकता है, तो अहिंसा, जीवन का एक महान् धर्म है। हिंमा से जीवन का निर्वाह होता है और अहिंसा जीवन को परिपूर्णता का ओर लेजाती है। अतः हमारा यह कर्तव्य होजाता है कि हम जीवन की परिपूर्णता की ओर बढ़े किन्तु परिपूणता की ओर बढ़ने के लिये जीवन निर्वाह की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जोवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आदि सभा क्षेत्रों में जीवन की शान्तिमय प्रगति के लिये अनेक हिंसामय उपायों को काम में लाना पड़ता है जिनके बिना सांसारिक व्यवहार चल नहीं सकता। यदि डाकू, चोर, लुटेरे और घातकों को भी दण्ड देने में हिंसा मान कर उसका पालन करने लगें तब तो संसार में अराजकता छा जाए और भयानक से भयानक उत्पात होने लग जाएँ फिर भला संसार में शान्ति की स्थापना कैसे हो सकती है ? अतएव संसार की व्यवस्था को ठीक बनाए रखने के लिये और शान्तिपूर्ण जीवन की स्थापना के लिये जो हिंसा की जाती है वह तो पुण्य का रूप धारण कर लेती है या दूसरे शब्दों में वह किसी हद तक अहिंसा धर्म का पोषण करती है । अतः धूर्ती और आतताइयों को दण्ड देने में कोई दोष नहीं। इससे सा धर्म के पालन में कोई बाधा नहों पड़ती। यही कारण है कि जन राजनीति के अनुसार जो पांच यज्ञ बतलाए हैं उनमें सबसे पहला यज्ञ 'दुष्टस्य दण्डः' अर्थात् दुष्ट को दण्ड देना है। इसी प्रकार यदि कोई शत्रु हमारे राष्ट्र पर आक्रमण करे, हमें परतंत्र बनाना चाहे या लूट मार करे तो उसका मुकाबला करके उसे पीछे हटाने या मारने में भी कोई हिंसा नहीं माननी चाहिये । जैन राजनीति में 'रिपु राष्ट्र रक्षा' अर्थात् शत्रु से राष्ट्र की
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