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(१) स्यादस्ति- कथंचित् है । (२) स्यात् नास्ति- नहीं है। (3) स्यादस्ति नास्ति - है और नहीं है। (२) स्यादवक्तव्यम् -- अवाच्य है। (५) स्यादस्ति श्रवक्त.व्यं च - है और अवाच्य है । (६) स्यान्नास्ति श्रवक्तव्यं च- नहीं है और अवाच्य है । (७) स्यादस्ति, नास्ति, अवक्तव्यं च - कथचित् है, नहीं है
और अवाच्य है।
इन सातों प्रकार के समूह को सप्तभंगी कहा जाता है। इन सातों वाक्यों का मूल विधि और प्रतिपेध है, इस कारण बहुत से विद्वान् इसको विधि प्रतिपेध मूलक पद्धति के नाम से भी पुकारते हैं । इस प्रकार यह सप्तभंगी जैन दर्शन की ही अपनी विशेषता है। भारत के अन्य किसी भी दर्शन में इस प्रकार का क्रमबद्धः सप्तभगी का वर्णन नहीं मिलता। हाँ वैदिक दर्शन में सत्, असत् उभय और अनिर्वचन य भंगों का वर्णन मिलता है जिससे जैनदर्शन के मन्तव्य की पुष्टि होती है । बौद्ध धर्म भी अनेकान्त दर्शन से बहुत प्रभावित रहा है। बद्ध दर्शन में चतुष्कोटि के नाम से प्रसिद्ध जो सत् , असत् , उभय
और अनुभय का यत्र तत्र वर्णन मिलता है वह इस सत्य का पोषक है। समभंगी का वर्णन करते हुए सुयोग्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं किः
___ "जब * हम किसी वस्तु को सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उस वस्तु के स्वरूप की अपेक्षा से ही उसे सत् कहा जा सकता है। पर वस्तु के स्वरूर की अपेक्षा से दुनिया की
* देग्निये जैन दर्शन का स्याद्वादांक पृ० ६२ ।
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