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सत्य की पुष्टि आगे चल कर उपनिषदों ने भी की है। मण्डकोपनिषद में लिखा है कि:यथोर्ण नाभि सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्याम षधयः संभवान्त । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ।।
.. अर्थात्-जिस प्रकार मकड़ी जाले को अपने शरीर में से बनाती है और अन्त में फिर उस जाले को अपने में हो अाकुञ्चित कर लेती है; और जैसे पृथ्वी से अनेक प्रकार की औषधियें पैदा होती हैं और अन्त में सभी पृथ्वीरूप हो होजाती है; जैसे चेतन पुरुप से केशादि की उत्पत्ति होती है, ठीक उसी प्रकार अक्षर, अविकृत और अविनाशी ईश्वर से सारे विश्व की उत्पत्ति होती है और अन्त में सारा विश्व उसी ईश्वर में लीन होजाता है ।
वेदान्त दर्शन में ईश्वर ।
वैदिक धर्म की जितनी भी दार्शनिक शाखाए हैं उन में वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त का स्थान बहुत ऊंचा है। वेदान्तदर्शन में आत्मतत्व और परमात्मतत्त्व की जो खोज की गई है वह बड़ी गंभोर है
और वेदिक धर्म में वेदान्त मान्यता के अनुयायी चिरकाल से बहत बड़ी संख्या में रहे हैं । जब सारा भारतवर्ष महत्मा बुद्ध के प्रभाव मे बौद्ध धर्मावलम्बी होगया था उस समय वेदान्तदर्शन के महान् विद्वान् स्वामी श्री शंकराचार्य ने वेदान्तदर्शन प्रचार करके ही पुनः भारत में ध्यापक रूप से वैदिक धर्म को स्थापना की थी । प्रस्तु, वेदान्त दर्शन को द्वैतवाद और अद्वैतवाद नाम की दो बड़ी शाखाए है। ईश्वरीय या ब्रह्म की सत्ता को दोनों मानते हैं किन्तु दोनों में सैदान्तिक भेद काफी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com