Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 2
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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( १८ ) जिणचक्कीण य जणणी, निअंति चउदस गयाइ वरसुमिणे । सग १ चउ २ ति ३ इगाई ४ हरि १-बल २ पडिहरि ३ मंडलि अ४ माया ॥ ७३॥ ( स्वप्नानि )
जिनचक्रिणाञ्च जननी, नियमाञ्चतुर्दशगजादिवरस्वप्नान् । सप्त चतुरुयेकादीन् , हरिबलप्रतिहरिमण्डलिकमाता ॥ ७३ ।। पढमस्स पिया इंदा, सेसाणं जणय सुविणसत्थविऊ । अट्ठविआरिंसु सुहे, सुविणे चउदस जणणिदिट्टे ॥ ७४ ।। प्रथमस्य पिता इन्द्राः, शेपाणां जनकाः स्वप्नशास्त्रविदः । अर्थेन व्यचारयन् शुभान , स्वप्नांश्चतुर्दश जननीदृष्टान् ॥७४॥
दु २ चउत्थ ४ नवम ९ बारस १२-तेरस १३ पनरस १५ सेसगब्भठिई । मासा अड ८ नव ९ तदुवरि, उसहाइ कमेणिमे दिवसा ।। ७५ ॥
द्विचतुर्थनवमद्वादश-त्रयोदशपञ्चदशशेषगर्भस्थितिः । मासा अष्टनव तदुपरि, ऋषभादौ क्रमादिमे दिवसाः ॥७५।।
चउ १ पणवीसं २ छद्दिण ३, अडवीसं ४ छच्च ५ छच्चि ६ गुणवीसं ७ । सग ८ छवीसं ९ छ १० च्छ य ११, वीसि १२ गवीसं १३ छ १४ छवीसं १५ ।। ७६ ॥ चतुः पञ्चविंशतिषट्दिना-न्यष्टाविंशतिः षट्चषट्चकोनविंशतिः। सप्तषविंशतिःषषट्च, विशतिरेकविंशतिः षट् षड्विंशतिः ॥१६॥
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