Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 2
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 81
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 93 ) सुमुणि सुसावगरूवो, मुक्खपहोरयणतिगसरूवो वा ।। सवजिणेहिं भणिओ, पंचविहो मुक्खविणओ वि ।। ३२५ ।। सुमुनिसुश्रावकरूपो - मोक्षपथो रत्नत्रिकस्वरूपो वा ॥ सर्वजिनेन्द्रैर्भणितः, पञ्चविधो मोक्ष विनयोऽपि ॥ ३२५ ॥ दंसणनाणचरिते, तवेय तह ओवयारिए चेव || एसो हु मुक्खविणओ, दुहा व गिहिमुणिकिरियरूवो ॥ ३२६ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रं, तपश्च तथोपकारिता चैव || एष हि मोक्षविनयो- द्विधा वा गृहिमुनिक्रियारूपः ।। ३२६ ।। पुवपवित्ति जिणाणं, असंखकालो इहासि जा कुंधू | पासं जा संखिजो, वरिससहस्सं तु वीरस्स ॥ ३२७ ॥ पूर्वप्रवृत्तिर्जिनाना-मसंख्यकालोऽत्रासीदाकुंन्धु | पार्श्वयावत्संख्येयो - वर्षसहस्रं तु वीरस्य ॥ ३२७ ॥ एमेव छेअकालो, नवरं वीरस्स वीससमसहसा ॥ पासस्स नात्थि सोवा, सेससुअपवित्ति जा तित्थं ॥ ३२८ ॥ एवमेव च्छेदकालो - नवरं वीरस्य विंशतिः समाः सहस्राणि । पार्श्वस्य नास्ति स वा, शेषश्रुतप्रवृत्तिर्यवत्तीर्थम् ॥ ३२८ ॥ जम्माजम्माजम्मा, सिवंसिवा जम्म मुक्खओ मुक्खो ॥ इअ चउ जिणंतराई, इत्थ चउत्थं तु नायवं ॥ ३२९ ॥ इह पन १ तीस २ दस ३ नव ४, कोडिलक्खा For Private And Personal Use Only

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