Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 2
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) चतुरशीतिः १ पञ्चनवति २-द्वयधिकशतं ३ षोडशाधिकशतं ४ च शतं ५ ॥ सप्ताधिकशतं ६ पञ्चनवति ७-स्त्रिनवति ८ रष्टाशीति ९ रेकाशीतिः १० षट्सप्ततिः ११ ॥ २२९ ॥ पट्पष्टिः १२ सप्तपञ्चाशत् १३, पञ्चाशत् १४ त्रिचत्वारिंशत् १५ षत्रिंशत् १६ पञ्चत्रिंशत् १७ । त्रयस्त्रिंश १८ दृष्टाविंशति १९-रष्टादशं २० सप्तदशैका २१ दश २२ दश २३ नवच २४ ॥ २३० ॥ गणगणधरसंख्यैषा, वीरस्यैकादशगणधरा नवरं ॥ चतुर्दशशतद्विपञ्चाश-साङ्के गणधरा भवन्ति ॥ २३१ ।। चुलसिसहस १ तोलख्खा , इग २ दो ३ तिन्नेव ४ तिन्निवीसा य ५। तिनियतीसा ६ तिनिअ, ७ सदुर्ग ८ दुन्नि ९ इगलक्खो १० ॥ २३२ ॥ सहसा चुलसि ११ बिसत्तरि, १२ अडसट्टि १३ छसहि १४ तहय चउसट्ठी ॥ १५ बासहि १६ सहि १७ पन्ना १८, चत्ता १९ तीसाय २० वीसाय २१ ॥ २३३ ॥ अट्ठार २२ सोल २३ चउदस २४, सहसा उसहाइयाणमुणिसंखा॥ अट्ठावीसं लक्खा, अडयाल सहस्स सबके ॥२३४॥ चतुरशीति सहस्राणि, ततोलक्षमेकं वेत्रीण्येव त्रीणि विंश तिश्च ॥ त्रीणि च त्रिंशत् त्रीणि च-सार्द्धद्वे द्वे एकलक्षम् ॥२३२॥ For Private And Personal Use Only

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