Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 2
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir
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( ६४ )
ओगच्छिय वेगच्छिय, संघाडी खंधगरणि उवगरणा । पुल्लितेर कमठग, सहिआ अजाण पणवीसा ॥२८१॥ अवग्रहाऽनन्तकपट्टो - द्धोरुश्चलनिका च बोद्धव्या । अभ्यन्तर बहिर्निव - सनी च तथा कंचुकचैव उपकक्षिका वैकक्षिका, संघाटी स्कंधकरण्युपकरणानि । पूर्वोक्तत्रयोदश कमठक - सहितान्यार्याणां पंचविंशतिः ॥२८१ ॥
॥ २८१ ॥
सामाइय चारितं, छेओवट्ठावणं च परिहारं । तह सुहमसंपरायं, अहखायं पंच चरणाई सामायिकचारित्रं, छेदोपस्थापनं च परिहारम् | तथा सूक्ष्मसंपरायं यथाख्यातं पञ्च चरणानि
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॥ २८२ ॥
दुहं पण इअराणं, तिनिउ सामाइय सुहुमअहखाया । जीवाई नवतत्ता, तिनि हवा देवगुरुधम्मा
॥ २८३ ॥
।। २८२ ॥
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॥ २८३ ॥
।। २८४ ।।
द्वयोः पचेतरेषां त्रीणि तु सामायिकसूक्ष्मयथाख्यातानि । जीवादि नवतत्त्वानि, त्रीण्यथवा देवगुरुधर्माः सवेसिं जियअजिया, पुनं पावं च आसवोबंधो । संवरनिज्जरमोक्खा, पत्ते अमणेकहा तत्ता सर्वेषां जीवाजीवौ, पुन्यं पापं चाऽऽश्रवो बन्धः । संवरनिर्जरामोक्षाः, प्रत्येकमनेकधा तत्त्वानि सवे हिंच समइआ, सम्मस्सु देससवविरईहिं | भणिआ सागरकोडा - कोडी सेसेसु कम्मे सु
॥ २८४ ॥
।। २८५ ।।
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