Book Title: Saptatishat Sthana Prakaranam Part 2
Author(s): Ruddhisagar
Publisher: Buddhisagarsuri Jain Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६४ ) ओगच्छिय वेगच्छिय, संघाडी खंधगरणि उवगरणा । पुल्लितेर कमठग, सहिआ अजाण पणवीसा ॥२८१॥ अवग्रहाऽनन्तकपट्टो - द्धोरुश्चलनिका च बोद्धव्या । अभ्यन्तर बहिर्निव - सनी च तथा कंचुकचैव उपकक्षिका वैकक्षिका, संघाटी स्कंधकरण्युपकरणानि । पूर्वोक्तत्रयोदश कमठक - सहितान्यार्याणां पंचविंशतिः ॥२८१ ॥ ॥ २८१ ॥ सामाइय चारितं, छेओवट्ठावणं च परिहारं । तह सुहमसंपरायं, अहखायं पंच चरणाई सामायिकचारित्रं, छेदोपस्थापनं च परिहारम् | तथा सूक्ष्मसंपरायं यथाख्यातं पञ्च चरणानि 1 ॥ २८२ ॥ दुहं पण इअराणं, तिनिउ सामाइय सुहुमअहखाया । जीवाई नवतत्ता, तिनि हवा देवगुरुधम्मा ॥ २८३ ॥ ।। २८२ ॥ " ॥ २८३ ॥ ।। २८४ ।। द्वयोः पचेतरेषां त्रीणि तु सामायिकसूक्ष्मयथाख्यातानि । जीवादि नवतत्त्वानि, त्रीण्यथवा देवगुरुधर्माः सवेसिं जियअजिया, पुनं पावं च आसवोबंधो । संवरनिज्जरमोक्खा, पत्ते अमणेकहा तत्ता सर्वेषां जीवाजीवौ, पुन्यं पापं चाऽऽश्रवो बन्धः । संवरनिर्जरामोक्षाः, प्रत्येकमनेकधा तत्त्वानि सवे हिंच समइआ, सम्मस्सु देससवविरईहिं | भणिआ सागरकोडा - कोडी सेसेसु कम्मे सु ॥ २८४ ॥ ।। २८५ ।। For Private And Personal Use Only


Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112