Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ (१६) ५१९,५२०. ५२१,५२२. ५२३. ५२४. ५२५. ५२६,५२७. ५२८-५३४. ५३५-५५८. ५५९. ५६०,५६१. ५६२,५६३. ५६४. ५६५. ५६६. ५६७. ५६८,५६९. समवस्थिति। आलोचनाह की योग्यता तथा गुण। ६०५. आलोचक की योग्यता तथा गुण। ६०६. आलोचना के दस दोष। ६०१-६११. प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना ६१२-६१६. करने का विधान। ६१७-६२३. सातिरेक, बहुसातिरेक आदि सूत्रों के अनेक ६२४. विकल्प। ६२५,६२६. भिक्षाग्रहण के समय होने वाले पांच दोषों का वर्णन | ६२७. तथा प्रायश्चित्त। ६२८. परस्पर संयोग से होने वाले विकल्प। ६२९-६३१. परिहार तप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु-पृच्छा, | ६३२. पर्याय, सूत्रार्थ, अभिग्रह आदि। परिहार तप करने वाले का वैयावृत्त्य। ६३३-६३८. वैयावृत्त्य के तीन प्रकार तथा सुभद्रा आदि के ६३९-६४३. दृष्टान्त। त्रिविध-अनुशिष्टि की भावना। ६४४-६४८. आत्मोपलम्भ का स्वरूप। ६४९. उपग्रह के दो प्रकार। ६५०. उपग्रह का प्रवर्तन समस्त गच्छ में। ६५१,६५२. समस्त गच्छ में अनुशिष्टि का प्रवर्तन। ६५३-६५७. कौन आचार्य इहलोक में हितकारी और कौन ६८५. परलोक में? ६५९,६६०. सारणा न करने वाला आचार्य समीचीन क्यों नहीं ? | ६६१. कृत्स्न प्रायश्चित्त का आरोपण। ६६२-६६४. कृत्स्न के छह प्रकार। पहले किस कृत्स्न से आरोपण ? ६६६-६६९. प्रतिसेवना और आलोचना की चतुर्भगी। प्रथम पूर्वानुपूर्वी की व्याख्या। ६७०. पूर्वोक्त चतुर्भगी का स्पष्टीकरण। ६७१-६७५. प्रतिकुंचना-अप्रतिकुंचना की चतुर्भगी, व्याध, गोणी और भिक्षुकी का दृष्टान्त। ६७७,६७८. शुद्धि का उपाय मायारहित आलोचना। तीन प्रकार के आचार्य और तीन प्रकार के ६७९. आलोचनाह। ६८०. स्वस्थानानुग तथा परस्थानानुग के आधार पर ६८१. आचार्य के नौ भेद तथा प्रायश्चित्त की विविधता।। ६८२. प्रायश्चित्त देने की प्रस्थापना के भेद-प्रभेद। आरोपनणा के पांच प्रकारों की व्याख्या। ६८३. प्रायश्चित्त वहन करने वालों के दो प्रकार-कृतकरण | ६८४,६८५. For Private & Personal Use Only तथा अकृतकरण। अकृतकरण के दो भेद। प्रायश्चित्तवाहक के दो भेद। कृतकरण के स्वरूप की व्याख्या। निरपेक्ष का एक और सापेक्ष के तीन भेद क्यों ? भंडी और पोत का दृष्टांत। पारिहारिक और अपारिहारिक की समाचारी। पारिहारिक कौन का समाधान। छलना के दो प्रकार। भावछलना की व्याख्या और प्रकार। नैषेधिकी और अभिशय्या की चर्चा | नैषेधिकी और अभिशय्या में निष्कारण जाने से प्रायश्चित्त। वसतिपालक के अभिशय्या में जाने से दोष। निष्कारण अभिशय्या अथवा नैषेधिकी में जाने के दोष। कारण से अभिशय्या में न जाने का प्रायश्चित्त। अभिशय्या में जाने का निषेध। अभिशय्या में नायक कौन ? अगीतार्थ को नायक क्यों और कैसे ? असामाचारी के दोषों का निरूपण। सम्यक् प्रायश्चित्त-दान का दृष्टान्तों द्वारा कथन। अधिक प्रायश्चित्त देने के अलाभ। प्रायश्चित्त उतना ही जितने से शाधि हो। प्रायश्चित्त न देने से हानि में व्याध का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त न देने वाले आचार्य का अधःपतन। उचित प्रायश्चित्त देकर शोधि कराने वाले आचार्य की सुगति। अंतःपुरपालक का दृष्टान्त। अभिशय्या में जाने की आपवादिक विधि। अभिशय्या में जाने की यतना का निर्देश। अभिशय्या में जाने का अन्य मुनियों को निर्देश। प्रतिषिद्ध अभिशय्या का अपवाद तथा वृषभों की स्वीकृति। अभिशय्या और नैषेधिकी के भेद। अभिनषेधिकी और अभिशय्या का स्वरूप। शय्यातर को पूछकर अभिशय्या में जाने का समय। आवश्यक सम्पन्न करके अभिशय्या में जाने का निर्देश। अभिशय्या में रात्रि में न जाने के कारणों का निर्देश। आवश्यक को पूर्ण कर या न कर अभिशय्या में www.jainelibrary.org ५७०. ५७१. ५७२,५७३. ५७४. ५७५,५७६. ५७७. ५७८,५७९. ५८०-५८४. ५८५. ५८६. नाचनाहा ५८७-५९६. ५९७,५९८. ५९९-६०३. ६०४. Jain Education International

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