Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 16
________________ (१५) ३५४. ३५५. ३५६. ३५७. ३५८. ३५९. ३६०. ३६१. ३६२. ३६३. ३६४,३६५. ३६६,३६७. ३६८-४३१. ४३२. अपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त न | ४६०. देने में दोष। ४६१-४६९. अतिपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त न | ४७०,४७१. देने में दोष। चार प्रकार के स्थापना स्थान तथा आरोपणा स्थान। ४७२. किस जघन्य स्थापना स्थान में जघन्य आरोपणा | ४७३,४७४. स्थान। जघन्य स्थापना बीस रात, दिन उत्कृष्ट स्थापना | ४७५. . एक सौ पैंसठ दिन रात। जघन्य और उत्कृष्ट आरोपणा का कालमान तथा | ४७६, ४७७. पांच-पांच दिन का प्रक्षेप। स्थापना तथा आरोपण में चरमान्त तक पांच- ४७८. पांच की वृद्धि। ४७९,४८०. उत्कृष्ट आरोपणा की परिज्ञान-विधि। ४८१,४८२. आरोपणा स्थान में उत्कृष्ट स्थापना का परिज्ञान।। ४८३. प्रथम स्थान में स्थापना स्थान और आरोपणा स्थान आदि कितने ? ४८४. संवेध संख्या जानने का उपाय। ४८५. स्थापना तथा आरोपण के पदों का परिज्ञान। । ४८६,४८७. स्थापना एवं आरोपणा का विविध दृष्टियों से विमर्श। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के गुरु, गुरुतर का ४८८. विवेक। ४८९-४९१. प्रायश्चित्त का विधान अतिक्रम आदि के आधार ४९२. पर। ४९३. सूत्र में अभिहित सभी प्रायश्चित्त स्थविरकल्प के ४९४. आचार के आधार पर। ४९५,४९६. निशीथ का परिचय। ४९७-५००. निशीथ के उन्नीस उद्देशकों में प्रतिपादित दोषों का ५०१. एकत्व कैसे ? प्रश्न और आचार्य का समाधान। ५०२. दोषों के एकत्व विषयक घृतकुटक तथा नालिका ५०३,५०४. दृष्टान्त। ५०५-५०८. दोषों के एकत्व विषयक औषध का दृष्टान्त। ५०९-५१२. चतुर्दशपूर्वी के आधार पर दोषों का एकत्व तथा प्रायश्चित्त-दान। ५१३,५१४. नालिका से कालज्ञान की विधि। जाति के आधार पर दोषों का एकत्व। ५१५,५१६. अनेक उपराधों का एक प्रायश्चित्त : अगारी एवं चोर का दृष्टांत। . ५१७. प्रायश्चित्त-दान के विविध कोण तथा मरुक का दृष्टान्त। | ५१८. For Private & Personal Use Only छह मास से अधिक प्रायश्चित्त न देने का विधान। छेद और मूल कब, कैसे? पिंडविशोधि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि उत्तरगुणों की संख्या का परिज्ञान। प्रायश्चित्त वहन करने वालों के प्रकार। निर्गत और वर्तमान तथा संचित और असंचित प्रायश्चित्तवाहकों का परिज्ञान। संचय, असंचय तथा उद्घात, अनुद्घात की प्रस्थापन-विधि। असंचय के तेरह तथा संचय के ग्यारह प्रस्थापनापद। संचयित प्रायश्चित्त के पद। प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष। उभयतर प्रायश्चित्त में सेवक का दृष्टान्त। उभयतर पुरुष द्वारा वैयावृत्त्य न करने पर प्रायश्चित्त का विधान। उभयतर तथा परतर के प्रायश्चित्त दान में अन्तर। भिन्न मास आदि प्रायश्चित्त देने की विधि। उद्घात और अनुद्घात प्रायश्चित्त वहन करने वाले के लघु-गुरु मासिक का निर्देश। उद्घात और अनुद्घात के आपत्ति स्थान। उद्घात और अनुद्घात के प्रायश्चित्त विधि। अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। दुर्बल और बलिष्ठ को यथानुरूप प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त-दान का विवेक। आत्मतर तथा परतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। , अन्यतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। 'मूल' प्रायश्चित्त किसको? प्रायश्चित्त विषयक-प्रश्न तथा उत्तर। जलकुट और वस्त्र के दृष्टान्त से शुद्धि का विवेक। राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि से प्रायश्चित्त में वृद्धि और हानि विषयक प्रश्नोत्तर। हीन या अधिक प्रस्थापना क्यों? आचार्य का समाधान। राग और द्वेष की हानि और वृद्धि का परिज्ञान कैसे? निकाचना का विवरण तथा आलोचना संबंधी दन्तपुर का कथानक। आलोचना, आलोचनाह तथा आलोचक-तीनों की www.jainelibrary.org ४३३. ४३४. ४३५. ४३६,४३७. ४३८. ४३९-४४२. ४४३. ४४४. ४४५. ४४६-४५२. ४५३-४५९. Jain Education International

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