Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ (१३) २३७. २३८. १९१. २४६. १९३. १७८-१८०. आचार्य आदि की चिकित्साविधि का भंडी और | २३१,२३२. पोत के दृष्टांत से नानात्व का समर्थन। २३३. १८१. चिकित्सा का सकारण निर्देश। २३४,२३५. १८२. अकारण चिकित्सा का निषेध। २३६. १८३. सालंबसेवी की चिकित्सा का समर्थन। १८४-१८६. कल्प और व्यवहार भाष्य में प्रायश्चित्त तथा आलोचना विधि का भेद। २३९. १८७. निर्देशवाचक जे. के आदि शब्दों का संकेत। २४०-४३. १८८. भिक्षु शब्द के निक्षेप। २४४. १८९. 'भिक्षणशीलो भिक्षुः' निरुक्त की यथार्थता। २४५. १९०. भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति की मीमांसा। सभी भिक्षाजीवी भिक्षु नहीं-इसका विवेचन। १९२. सचित्त आदि लेने वाला भिक्षु कैसे ? भिक्षु कौन ? २४७. १९४. 'क्षुधं भिनत्ति इति भिक्षुः' इस निर्वचन की २४८. यथार्थता। २४९. १९५. भिक्षु शब्द के एकार्थकों का निर्वचन। २५०-२५५. १९६,१९७. मास शब्द के निक्षेप। १९८. कालमास के प्रकार। २५६. १९९. नक्षत्रमास आदि के दिन-परिमाण। २५७-२६०. २००. दिनराशि की स्थापना। २०१-२०४. अभिवर्द्धित मास का दिन-परिमाण निकालने का | २६१,२६२. उपाय-अभिवर्द्धितकरण। २०५-२०८. ऋक्ष आदि नक्षत्र मासों के विषय में विशेष २६३,२६४. जानकारी। २६५. २०९. भावमास का प्रतिपादन। २६६. २१०-१२. परिहार शब्द के निक्षेप एवं उनकी व्याख्या। २६७. २१३. स्थान शब्द के निक्षेप और उनकी व्याख्या। २६८. २१४. द्रव्य स्थान और क्षेत्र स्थान। २६९. २१५. ऊध्र्वादि स्थान। २७०,२७१. २१६. प्रग्रहस्थान। २७२. २१७. आचार्य आदि पांच प्रकार का प्रग्रह। २७३. २१८. योध-स्थान के पांच प्रकार। २७४. २१९,२२०. संधना-स्थान। २७५-२७७. प्रतिसेवना के प्रकार। २२२-२४. दर्प और कल्प-प्रतिसेवना। २७८. २२५. कर्मोदय हेतुक तथा कर्मक्षयकरणी प्रतिसेवना। २७९. २२६. प्रतिसेवना और कर्म का हेतुहेतुमद्भाव। २८०-२८२.. २२७. प्रतिसेवना का क्षेत्र, काल और भाव से विमर्श। २२८-२३०. आलोचना और शल्योद्धरण के लाभ। २८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only आलोचना के तीन प्रकार। आलोचना महान् फलदायी। विहार-आलोचना के भेद-प्रभेद। आलोचना का काल-नियम। विविध-आलोचना का स्वरूप ओघ-आलोचना के प्रकार। विहार-विभाग आलोचना-विधि आलोचना की विधि। विहार-आलोचना का स्वरूप। विहार आलोचना से उपसंपदा आलोचना तथा अपराध आलोचना का नानात्व। उपसंपदा आलोचना देने का प्रशस्त और अप्रशस्त काल। उपसंपद्यमान के प्रकार तथा आलोचना विधि। दिनों के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि। मुनि को गण से बहिष्कृत करने के १० कारण। अयोग्य मुनि को गण से बहिष्कृत न करने का प्रायश्चित्त। कलह आदि करने पर प्रायश्चित्त। एकाकी, अपरिणत आदि दोषों से युक्त के लिए प्रायश्चित्त का विधान। शिष्य, आचार्य तथा प्रतीच्छक के प्रायश्चित्त की विधि। निर्गमन-आगमन के शुद्ध-अशुद्ध की चतुर्भगी। आचार्य और शिष्य में पारस्परिक परीक्षा। परीक्षा के 'आवश्यक' आदि नौ प्रकार। आचार्य द्वारा शिष्य की परीक्षा। पंजरभग्न अविनीत की प्रवृत्तियां। परीक्षा-संलग्न शिष्य का गुरु को आत्मनिवेदन। परीक्षा के प्रतिलेखन आदि बिन्दुओं की व्याख्या। उपसंपद्यमान शिष्य का दो स्थानों से आगमन। पंजर शब्द विविध संदर्भ में। संगृहीतव्य और असंगृहीतव्य का निर्देश। वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणाविधि। स्वच्छंदमति के निवारणार्थ वाग्यतना। अलस आदि के प्रति वाग्यतना। वाग्यतना के विषय में शिष्य का प्रश्न और सूरी का उत्तर। प्रत्यनीक के लिए अपवाद। www.jainelibrary.org २२१.

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