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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
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है कि नहीं है? उत्तर इस प्रकार- निमित्तमात्र भी है। वह कौन वही कहते है''मोहनाम्नोऽनुभावात्'' [ मोहनाम्न ] पुद्गलपिंडरूप आठ कर्मोमें मोह एक कर्मजाति है, उसका [अनुभावात्] उदय अर्थात् विपाकअवस्था। भावार्थ इस प्रकार है- रागादि-अशुद्ध-परिणामरूप जीवद्रव्य व्याप्य-व्यापकरूप परिणमा है, पुद्गलपिंडरूप मोहकर्मका उदय निमित्तमात्र है। जैसे कोई धतूरा पीनेसे घुमता है, निमित्तमात्र धतूराका उसको है। कैसा है मोहनामक कर्म ? "परपरिणतिहेतोः'' [पर] अशुद्ध [ परिणति] जीवका परिणाम, जिसका [ हेतोः] कारण है। भावार्थ इस प्रकार है- जीवके अशुद्ध परिणामके निमित्त ऐसा रस लेकर मोहकर्म बँधता है, बादमें उदयसमयमें निमित्तमात्र होता है।। ३।।
[ मालिनी] उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।।४।।
रोला
उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक । स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं।। मेह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय। स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ।।४।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ते समयसारं ईक्षन्ते एव'' [ते] आसन्नभव्य जीव [ समयसारं] शुद्ध जीवको [ ईक्षन्ते एव] प्रत्यक्षपने प्राप्त होते हैं। "सपदि' थोड़े ही कालमें। कैसा है शुद्ध जीव ? "उच्चैः परं ज्योतिः'' अतिशयमान ज्ञानज्योति है। और कैसा है ? ' 'अनवम्'' अनादिसिद्ध है। और कैसा है ? "अनयपक्षाक्षुण्णम्'' [अनयपक्ष ] मिथ्यावादसे [ अक्षुण्णम् ] अखंडित है। भावार्थ इस प्रकार है- मिथ्यावादी बौद्धादि झूठी कल्पना बहुत प्रकार करते हैं, तथापि वे ही झूठे हैं। आत्मतत्त्व जैसा है वैसा ही है। आगे वे भव्य जीव क्या करते हुए शुद्ध स्वरूप पाते हैं, वही कहते हैं- "ये जिनवचसि रमन्ते'' [ये] आसन्नभव्य जीव [जिनवचसि] दिव्यध्वनि द्वारा कही है उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु, उसमें [ रमन्ते] सावधानपने रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करते हैं। विवरणशुद्ध जीववस्तुका प्रत्यक्षपने अनुभव करते हैं उसका नाम रुचि-श्रद्धा-प्रतीति है। भावार्थ इस प्रकार है- वचन पुदगल है, उसकी रुचि करने पर स्वरूपकी प्राप्ति नहीं। इसलिए वचन जाती है जो कोई उपादेय वस्तु, उसका अनुभव करनेपर फलप्राप्ति है। कैसा है जिनवचन ? ''उभयनयविरोधध्वंसिनि'' [ उभय] दो [ नय] पक्षपात [ विरोध ] परस्पर वैरभाव। विवरण- एक सत्त्वको द्रव्यार्थिकनय द्रव्यरूप उसी सत्त्वको पर्यायार्थिकनय पर्यायरूप कहता है। इसलिए परस्पर विरोध है; उसका [ ध्वंसिनि] मेटनशील है। भावार्थ इस प्रकार है- दोनों नय विकल्प हैं, शुद्ध जीवस्वरूपका
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