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कहान जैन शास्त्रमाला]
निर्जरा-अधिकार
१३१
खंडान्वय सहित अर्थ:- "यत: ज्ञानवान् स्वरसतः अपि सर्वरागरसवर्जनशीलः स्यात्'' [ यतः] जिस कारणसे [ ज्ञानवान् ] शुद्धस्वरूप अनुभवशीली है जो जीव वह [स्वरसतः] विभाव परिणमन मिटा है, इस कारण शुद्धतारूप द्रव्य परिणमा है, इसलिए [ सर्वराग] जितना राग द्वेष मोह परिणामरूप [ रस] अनादिका संस्कार, उससे [वर्जनशील: स्यात् ] रहित है स्वभाव जिसका ऐसा है। "ततः एषः कर्ममध्यपतितः अपि सकलकर्मभिः न लिप्यते'' [ततः] तिस कारणसे [ एषः] सम्यग्दृष्टि जीव [ कर्म ] कर्मके उदयजनित अनेक प्रकारकी भोगसामग्री उसमें [ मध्यपतितः अपिः] पंचेन्द्रिय भोगसामग्री भोगता है, सुख दुःखको प्राप्त होता है तथापि [ सकलकर्मभिः ] आठों प्रकारके हैं जो ज्ञानावरणादि कर्म, उनके द्वारा [ न लिप्यते] नहीं बाँधा जाता है। भावार्थ इस प्रकार है कि अन्तरंग चिकनापन नहीं है, इससे बन्ध नहीं होता है, निर्जरा होती है।। १७–१४९ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] यादृक् तागिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तुं नैष कथञ्चनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते। अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव।।१८-१५०।।
[हरिगीत] स्वयं ही हो परिणमित स्वाधीन हैं सब वस्तुयें। अर अन्यके द्वारा कभी वे नहीं बदली जा सकें।। जिम परजनित अपराध से बंधते नहीं जन जगत में। तिम भोग भोगें किन्तु ज्ञानीजन कभी बंधते नहीं।।१५० ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ कोई प्रश्न करता है कि सम्यग्दृष्टि जीव परिणामसे शुद्ध है तथापि पंचेन्द्रिय विषय भोगता है सो विषयको भोगते हुए कर्मका बंध है कि नहीं है ? समाधान इस प्रकार है कि कर्मका बंध नहीं है। "ज्ञानीन् भुंक्ष्व'' [ ज्ञानिन्] भो सम्यग्दृष्टि जीव! [ भुंक्ष्व ] कर्मके उदयसे प्राप्त हुई है जो भोगसामग्री उसको भोगते हो तो भोगो "तथापि तव बन्धः नास्ति'" [तथापि] तो भी [तव] तेरे [बन्ध:] ज्ञानावरणादि कर्मका आगमन [नास्ति] नहीं है। कैसा बंध नहीं है ? ''परापराधजनित:'' [पर] भोगसामग्री, उसका [अपराध] भोगनेमें आना, उससे [ जनितः ] उत्पन्न हुआ।
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