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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अहम् आत्मना आत्मनि वर्ते''[अहम् ] चेतनामात्र स्वरूप हूँ जो मैं वस्तु वह मैं [आत्मना ] अपनेपनेसे [आत्मनि वर्ते] रागादि अशुद्ध परिणति त्यागकर अपने शुद्ध स्वरूपमें अनुभवरूप प्रवर्तता हूँ। कैसा है आत्मा अर्थात् आप? ''नित्यम् चैतन्यात्मनि'' [नित्यम् ] सर्व काल [चैतन्यात्मनि] ज्ञानमात्र स्वरूप है। और कैसा है ? "निष्कर्मणि'' समस्त कर्मकी उपाधिसे रहित है। क्या करता हुआ ऐसे प्रवर्तता हूँ ? "तत् समस्तं कर्म प्रतिक्रम्य'' पहले किया है जो कछ अशद्धपनारूप कर्म उसका त्यागकर। कौन कर्म ? "यत अहम अकार्षं'' जो आप किया है। किस कारणसे ? "मोहात्'' शुद्ध स्वरूपसे भ्रष्ट होकर कर्मके उदयमें आत्मबुद्धि होनेसे।। ३४२२६ ।।
वर्तमान कालकी आलोचना इस प्रकार है
न करोमि न कारयामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''न करोमि'' वर्तमान कालमें होता है जो राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मबन्ध, उसको मैं नहीं करता हूँ। भावार्थ इस प्रकार है – मेरा स्वामित्वपना नहीं है ऐसा अनुभवता है सम्यग्दृष्टि जीव। “न कारयामि'' अन्यको उपदेश देकर नहीं करवाता हूँ। 'अन्यं कुर्वन्तम् अपि न समनुजानामि'' अपनेसे सहज अशुद्धपनारूप परिणमता है जो कोई जीव उसमें मैं सुख नहीं मानता हूँ [ मनसा] मनसे [ वाचा] वचनसे [ कायेन ] शरीरसे। सर्वथा वर्तमान कर्मका मेरे त्याग है।
[आर्या] मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। ३५-२२७।।
[रोला] मोह भाव से वर्तमान में कर्म किये जो, उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के, शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में।।२२७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अहं आत्मना आत्मनि नित्यम् वर्ते'' [ अहं ] मैं [ आत्मना] परद्रव्यकी सहाय बिना अपनी सहायसे [ आत्मनि] अपनेमें [वर्ते] सर्वथा उपादेय बुद्धिसे प्रवर्तता हूँ। क्या करके ? ' "इदम् सकलम् कर्म उदयत् आलोच्य '' [इदम् ] वर्तमानमें उपस्थित [ सकलम् कर्म] जितना अशुद्धपना अथवा ज्ञानावरणादि कर्मपिण्डरूप पुद्गल जो कि [उदयत् ] वर्तमान कालमें उदयरूप है उसका
* देखो पदटिप्पण पृ २०३ ।
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