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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[वसन्ततिलका] ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः। ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति।।३-२६६ ।।
[वसंततिलका] रे ज्ञानमात्र निजभाव अकंपभूमि। को प्राप्त करते जो अपनीतमोही।। साधकपने को पा वे सिद्ध होते। अर अज्ञ इसके बिना परिभ्रमण करते।।२६६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- " ते सिद्धाः भवन्ति'' [ ते] ऐसे है जो जीव वे [ सिद्धाः भवन्ति] सकल कर्मकलंकसे रहित मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। कैसे होकर ? “साधकत्वम् अधिगम्य'' शुद्ध जीवका अनुभवगर्भित है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप कारण रत्नत्रय, उसरूप परिणमा है आत्मा ऐसा होकर। और कैसे हैं वे ? ''ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीम् भूमिं श्रयन्ति'' [ये] जो कोई [ज्ञानमात्र] चेतना है सर्वस्व जिसका ऐसे [निजभाव ] जीवद्रव्यके अनुभवरूप [मयीम्] कोई विकल्प नहीं है जिसमें ऐसी [ भूमिं] मोक्षकी कारणरूप अवस्थाको [श्रयन्ति] प्राप्त होते हैं-एकाग्र होकर उस भूमिरूप परिणमते हैं। कैसी है भूमि ? ''अकम्पां'' निर्द्वन्द्वरूप सुखगर्भित है। कैसे हैं वे जीव ? "कथमपि अपनीतमोहाः''[कथम् अपि] अनन्त काल भ्रमण करते हुए काललब्धिको पाकर [अपनीत ] मिटा है [ मोहाः] मिथ्यात्वरूप विभावपरिणाम जिनका ऐसे हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि ऐसा जीव मोक्षका साधक होता है। "तु मूढाः अमूम् अनुपलभ्य परिभ्रमन्ति'' [तु] कहे हुए अर्थको दृढ़ करते हैं- [मूढाः] नहीं है जीववस्तुका अनुभव जिनको ऐसे जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव हैं वे [ अमूम्] शुद्ध जीवस्वरूपके अनुभवरूप अवस्थाको [अनुपलभ्य] पाये बिना [ परिभ्रमन्ति] चतुर्गति संसारमें रुलते हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध जीव स्वरूपका अनुभव मोक्षका मार्ग है, दूसरा मार्ग नहीं है।। ३-२६६ ।।
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