Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 274
________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला ] साध्य-साधक-अधिकार खंडान्वय सहित अर्थ:- अयं स्वभावः परम् स्फुरतु'' [ अयं स्वभाव: ] विद्यमान है जो जीवपदार्थ [ परम् स्फुरतु ] यही एक अनुभवरूप प्रगट होओ। कैसा है ? ' ' नित्योदय: '' सर्व काल एकरूप प्रगट है। और कैसा है ?'' इति मयि उदिते अन्यभावैः किम् ''[ इति ] पूर्वोक्त विधिसे [ मयि उदिते] मैं शुद्ध जीवस्वरूप हूँ ऐसा अनुभवरूप प्रत्यक्ष होनेपर [ अन्यभावै: ] अनेक हैं जो विकल्प उनसे [ किम् ] कौन प्रयोजन है? कैसे हैं अन्य भाव ? '' बन्धमोक्षपथपातिभिः '' [ बन्धपथ ] मोहराग-द्वेष बन्धका कारण हैं, [ मोक्षपथ ] सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र मोक्षमार्ग है ऐसे जो पक्ष उनमें [पातिभिः] पड़नेवाले हैं अर्थात् अपने अपने पक्षको कहते हैं, ऐसे हैं अनेक विकल्परूप । भावाथ इस प्रकार है कि ऐसे विकल्प जितने काल तक होते हैं उतने काल तक शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं होता। शुद्ध स्वरूपका अनुभव होनेपर ऐसे विकल्प विद्यमान ही नहीं होते, विचार किसका किया जाय। कैसा हूँ मैं? ‘‘स्याद्वाददीपितलसन्महसि '' [ स्याद्वाद ] द्रव्यरूप तथा पर्यायरूपसे [ दीपित ] प्रगट हुआ है [लसत् ] प्रत्यक्ष [ महसि ] ज्ञानमात्र स्वरूप जिसका । और कैसा हूँ ? " प्रकाशे " सर्व काल उद्योतस्वरूप हूँ। और कैसा हूँ ? " शुद्धस्वभावमहिमनि ' [ शुद्धस्वभाव ] शुद्धपनाके कारण [ महिमनि ] प्रगटपना है जिसका । ।। ६-२६९।। [ वसंततिलका ] चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः । तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ।। ७-२७०।। [ वसंततिलका ] निज शक्तियों का समुदाय आतम, विनष्ट होता नयदृष्टियों से । खंड-खंड होकर खण्डित नहीं में, एकान्त शान्त चिन्मात्र अखण्ड हूँ मैं ।।२७० ।। २४३ खंडान्वय सहित अर्थ:- ' तस्मात् अहं चित् महः अस्मि' ' [ तस्मात् ] तिस कारणसे [ अहं ] मैं [चित् महः अस्मि ] ज्ञानमात्र प्रकाशपुञ्ज हूँ। और कैसा हूँ ? 'अखण्डम्'' अखंडितप्रदेश हूँ । और कैसा हूँ?‘“ अनिराकृतखंडम् ' ' किसीके कारण अखंड नहीं हुआ हूँ, सहज ही अखण्डरूप हूँ। और कैसा हूँ?‘— एकम् ' ' समस्त विकल्पोसे रहित हूँ। और कैसा हूँ ? — एकान्तशान्तम् ''[ एकान्त ] सर्वथा प्रकार [ शान्तम् ] समस्त परद्रव्योंसे रहित हूँ। और कैसा हूँ ?' अचलं '' अपने स्वरूपसे सर्व कालमें अन्यथा नहीं हूँ। ऐसा चैतन्यस्वरूप मैं हूँ। जिस कारणसे " अयम् आत्मा नयेक्षणखण्ड्यमानः सद्यः प्रणश्यति '' [ अयम् आत्मा ] यह जीववस्तु [ नय ] द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक ऐसे अनेक विकल्प वे हुए [ ईक्षण ] अनेक लोचन उनके द्वारा [ खण्ड्यमानः ] अनेकरूप देखा हुआ [सद्य: प्रणश्यति ] खण्ड खण्ड होकर मूलसे खोज मिटा- नाशको पाप्त होता है। इतने नय एकमेंसे कैसे घटित होते हैं ? उत्तर इस प्रकार है Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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