Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 272
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates साध्य - साधक-अधिकार कहान जैन शास्त्रमाला ] [ वसन्ततिलका ] स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः । । ४ - २६७।। [ वसंततिलका ] स्याद्वादकौशल तथा संयम सुनिश्चल से ही सदा जो निज में जमे हैं ।। वे ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता से, सुपात्र हो पाते भूमिका को ।। २६७ ।। २४१ खंडान्वय सहित अर्थ:- ऐसी अनुभव भूमिकाको कैसा जीव योग्य है ऐसा कहते हैं - ' ' सः एकः इमां भूमिम् श्रयति'' [स: ] ऐसा [ एक: ] यही एक जातिका जीव [ इमां भूमिम् ] प्रत्यक्ष शुद्ध स्वरूपके अनुभवरूप अवस्थाके [ श्रयति ] अवलंबनके योग्य है, अर्थात् ऐसी अवस्थारूप परिणमनेका पात्र है। कैसा है वह जीव ? ' य: स्वम् अहरहः भावयति ' ' [ यः ] जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वम् ] जीवके शुद्ध स्वरूपको [ अहरहः भावयति ] निरन्तर अखण्ड धाराप्रवाहरूप अनुभवता है । कैसा करके अनुभवता है ? 'स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां '' [ स्याद्वाद ] द्रव्यरूप तथा पर्यायरूप वस्तुके अनुभवका [ कौशल ] विपरीतपनासे रहित वस्तु जिस प्रकार है उस प्रकारसे अंगीकार तथ [सुनिश्चलसंयमाभ्यां ] समस्त रागादि अशुद्ध परिणतिका त्याग इन दोनोंकी सहायतासे । और कैसा है? ‘— इह उपयुक्त: '' [ इह ] अपने शुद्ध स्वरूपके अनुभवमें [ उपयुक्त: ] सर्व काल एकाग्ररूपसे तल्लीन है । और कैसा है ? 'ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृत:' [ ज्ञाननय ] शुद्ध जीवके स्वरूपका अनुभव मोक्षमार्ग है, शुद्ध स्वरूपके अनुभव बिना जो कोई क्रिया है वह सर्व मोक्षमार्ग से शून्य है [क्रियानय] रागादि अशुद्ध परिणामका त्याग प्राप्त हुए बिना जो कोई शुद्ध स्वरूपका अनुभव कहता है वह समस्त झूठा है ; अनुभव नहीं है, कुछ ऐसा ही अनुभवका भ्रम है, कारण कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव अशुद्ध रागादि परिणामको मेटकर होता है। ऐसा है जो ज्ञाननय तथा क्रियानय उनका है जो [ परस्परतीव्रमैत्री ] परस्पर अत्यंत मित्रपना- शुद्ध स्वरूपका अनुभव है सो रागादि अशुद्ध परिणतिको मेटकर है, रागादि अशुद्ध परिणतिका विनाश शुद्ध स्वरूपके अनुभवको लिए हुए है, ऐसा अत्यन्त मित्रपना- उनका [ पात्रीकृतः ] पात्र हुआ है अर्थात् ज्ञाननय क्रियानका एक स्थानक है। भावार्थ इस प्रकार है कि दोनों नयोके अर्थसे विराजमान है ।। ४-२६७।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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