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साध्य - साधक-अधिकार
कहान जैन शास्त्रमाला ]
[ वसन्ततिलका ]
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः । । ४ - २६७।।
[ वसंततिलका ]
स्याद्वादकौशल तथा संयम सुनिश्चल से ही सदा जो निज में जमे हैं ।। वे ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता से, सुपात्र हो पाते भूमिका को ।। २६७ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- ऐसी अनुभव भूमिकाको कैसा जीव योग्य है ऐसा कहते हैं - ' ' सः एकः इमां भूमिम् श्रयति'' [स: ] ऐसा [ एक: ] यही एक जातिका जीव [ इमां भूमिम् ] प्रत्यक्ष शुद्ध स्वरूपके अनुभवरूप अवस्थाके [ श्रयति ] अवलंबनके योग्य है, अर्थात् ऐसी अवस्थारूप परिणमनेका पात्र है। कैसा है वह जीव ? ' य: स्वम् अहरहः भावयति ' ' [ यः ] जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वम् ] जीवके शुद्ध स्वरूपको [ अहरहः भावयति ] निरन्तर अखण्ड धाराप्रवाहरूप अनुभवता है । कैसा करके अनुभवता है ? 'स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां '' [ स्याद्वाद ] द्रव्यरूप तथा पर्यायरूप वस्तुके अनुभवका [ कौशल ] विपरीतपनासे रहित वस्तु जिस प्रकार है उस प्रकारसे अंगीकार तथ [सुनिश्चलसंयमाभ्यां ] समस्त रागादि अशुद्ध परिणतिका त्याग इन दोनोंकी सहायतासे । और कैसा है? ‘— इह उपयुक्त: '' [ इह ] अपने शुद्ध स्वरूपके अनुभवमें [ उपयुक्त: ] सर्व काल एकाग्ररूपसे तल्लीन है । और कैसा है ? 'ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृत:' [ ज्ञाननय ] शुद्ध जीवके स्वरूपका अनुभव मोक्षमार्ग है, शुद्ध स्वरूपके अनुभव बिना जो कोई क्रिया है वह सर्व मोक्षमार्ग से शून्य है [क्रियानय] रागादि अशुद्ध परिणामका त्याग प्राप्त हुए बिना जो कोई शुद्ध स्वरूपका अनुभव कहता है वह समस्त झूठा है ; अनुभव नहीं है, कुछ ऐसा ही अनुभवका भ्रम है, कारण कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव अशुद्ध रागादि परिणामको मेटकर होता है। ऐसा है जो ज्ञाननय तथा क्रियानय उनका है जो [ परस्परतीव्रमैत्री ] परस्पर अत्यंत मित्रपना- शुद्ध स्वरूपका अनुभव है सो रागादि अशुद्ध परिणतिको मेटकर है, रागादि अशुद्ध परिणतिका विनाश शुद्ध स्वरूपके अनुभवको लिए हुए है, ऐसा अत्यन्त मित्रपना- उनका [ पात्रीकृतः ] पात्र हुआ है अर्थात् ज्ञाननय क्रियानका एक स्थानक है। भावार्थ इस प्रकार है कि दोनों नयोके अर्थसे विराजमान है ।। ४-२६७।।
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