________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
२४२
समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[वसंततिलका] चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः। आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरुपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा।।५-२६८।।
[वसन्ततिलका] उदितप्रभा से जो सुप्रभात करता, चितपिण्ड जो है खिला निज रमणता से। जो अस्खलित है आनन्दमय वह , होता उदित अद्भुत अचल आतम।।२६८।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "तस्य एव आत्मा उदयति'' [ तस्य ] पूर्वोक्त जीवको [एव] अवश्यकर [आत्मा] जीवपदार्थ [उदयति] सकल कर्मका विनाश कर प्रगट होता है, अनन्त चतुष्टयरूप होता है। और कैसा प्रगट होता है ? ''अचलार्चिः' सर्व काल एकरूप है केवलज्ञान केवलदर्शन तेजपुत्रु जिसका ऐसा है। और कैसा है ? " चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहासः" [चित्पिण्ड] ज्ञानपुञ्जके [ चण्डिम] प्रतापकी [ विलासि] एकरूप परिणति ऐसा जो [ विकास] प्रकाशस्वरूप उसका [ हास:] निधान है। और कैसा है ? "शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः" [शुद्धप्रकाश] रागादि अशुद्ध परिणतिको मेटकर हुआ जो शुद्धत्वरूप परिणाम उसकी [भर] बार बार जो शुद्धत्वरूप परिणति उससे [निर्भर हुआ है [सुप्रभातः] साक्षात् उद्योत जिसमें ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार रात्रिसम्बन्धी अन्धकारके मिटनेपर दिवस उद्योतस्वरूप प्रगट होता है उसी प्रकार मिथ्यात्व राग द्वेषरूप अशुद्ध परिणति मेटकर शुद्धत्व परिणाम बिराजमान जीवद्रव्य प्रगट होता है। और कैसा है ? "आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूप:'' [आनन्द] द्रव्यके परिणामरूप अतीन्द्रिय सुखके कारण [ सुस्थित] जो आकुलतासे रहितपना उससे [सदा] सर्व काल [ अस्खलित] अमिट है [ एकरूपः] तद्रूप सर्वस्व जिसका ऐसा है।।५-२६८।।
[वसंततिलका] स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति। किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावैनित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः।। ६-२६९।।
__ [वसन्ततिलका महिमा उदित शुद्धस्वभाव की नित , स्याद्वाददीपित लसत् सद्ज्ञान में जब। तब बंध-मोक्ष मग में आपतित भावों, से क्या प्रयोजन है तुमही बताओ।।२६९ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com