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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[उपजाति] ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम्। अज्ञानसञ्चेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ।। ३२-२२४ ।।
[रोला] ज्ञान चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित, शुद्ध ज्ञान को रोके नित अज्ञान चेतना। और बन्ध की कर्ता यह अज्ञान चेतना, यही जान चेतो आतम नित ज्ञान चेतना।।२२४ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ज्ञानचेतनाका फल तथा अज्ञानचेतनाका फल कहते हैं: "नित्यं'' निरन्तर "ज्ञानस्य सञ्चेतनया'' राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणतिके बिना शुद्ध जीवस्वरूपके अनुभवरूप जो ज्ञानपरिणति उसके द्वारा "अतीव शुद्धम् ज्ञानम् प्रकाशते एव'' [अतीव शुद्धम् ज्ञानम्] सर्वथा निरावरण केवलज्ञान [प्रकाशते] प्रगट होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि कारण सदृश कार्य होता है, इसलिए शुद्ध ज्ञानका अनुभव करनेपर शुद्ध ज्ञानकी प्राप्ति होती है ऐसा घटित होता है, [एव] ऐसा ही है निश्चयसे। "तु' तथा 'अज्ञानसञ्चेतनया बन्धः धावन बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि'' [अज्ञानसञ्चेतनया ] राग-द्वेष-मोहरूप तथा सुख-दुःखादिरूप जीवकी अशुद्ध परिणति के द्वारा [बन्धः धावन्] ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध अवश्य होता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि] केवलज्ञानकी शुद्धताको रोकता है। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानचेतना मोक्षका मार्ग, अज्ञानचेतना संसारका मार्ग ।।३२-२२४ ।।
[आर्या] कृतकारितानुमनस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः। परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे।। ३३-२२५ ।।
[रोला] भूत भविष्यत वर्तमान के सभी कर्म कृत, कारित अर अनुमोदनादि में सभी ओर से। सबका कर परित्याग हृदय से वचन-काय से, अवलम्बन लेता हूँ परम निष्कर्मभाव से।।२२५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- कर्मचेतनारूप तथा कर्मफलचेतनारूप है जो अशुद्ध परिणति उसे मिटानेका अभ्यास करता है – “परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे'' मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव हूँ। सकल कर्मकी उपाधिसे रहित ऐसा मेरा स्वरूप मुझे स्वानुभव प्रत्यक्षसे आस्वादमें आता है। क्या विचार कर ? " सर्वं कर्म परिहृत्य'' जितना द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म है उन समस्तका स्वामित्व छोड़कर। अशुद्ध परिणतिका विवरण
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