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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
करते हैं कि चुप रहो चुप रहो। कैसे हैं अति जल्प ? "दुर्विकल्पैः'' झूठसे भी झूठ उठती है चित्तकल्लोलमाला जिनमें , ऐसे हैं। और कैसे हैं ? "अनल्पैः' शक्तिभेदसे अनन्त हैं ।। ५२-२४४।।
[अनुष्टुप] इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम्। विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत्।। ५३-२४५।।
[दोहा] ज्ञानानन्दस्वभाव को करता हुआ प्रत्यक्ष । अरे पूर्ण अब होरहा यह अक्षय जगचक्षु ।।२४५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "इदम् पूर्णताम् याति'' शुद्ध ज्ञानप्रकाश पूर्ण होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जो सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारका आरम्भ किया था वह पूर्ण हआ। कैसा है शुद्ध ज्ञान ? "एकं'' निर्विकल्प है। और कैसा है ? "जगच्चक्षुः'' जितनी ज्ञेयवस्तु उन सबका ज्ञाता है। और कैसा है ? "अक्षयं'' शाश्वत है। और कैसा है ? "विज्ञानघनम् अध्यक्षतां नयत्'' [विज्ञान] ज्ञानमात्रके [घनम्] समूहरूप आत्मद्रव्यको [ अध्यक्षतां नयत् ] प्रतयक्षरूपसे अनुभवता हुआ।। ५३२४५।।
[अनुष्टुप] इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम्। अखण्डमेकमचलं स्वसम्वेद्यमबाधितम्।। ५४-२४६ ।।
[दोहा] इस प्रकार यह आतमा अचल अबाधित एक । ज्ञानमात्र निश्चित हुआ जो अखण्ड स्वसंवेद्य ।।२४६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- इति'' इस प्रकार 'इदम् आत्मन: तत्त्वं'' यह आत्माका तत्व [अर्थात परमार्थभूत स्वरूप] 'ज्ञानमात्रम् ' ज्ञानमात्र ''अवस्थितम्'' निश्चित हुआ कि - जो [आत्मा का] ज्ञान मात्र तत्व 'अखण्डम्'' अखण्ड है [ अर्थात अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोंसे यद्यपि खण्ड खण्ड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खण्ड नहीं है], और कैसा है ? "एकम्'' एक है [अर्थात अखण्ड होनेसे एक रूप है ], और कैसा है ? "अचलं'' अचल है [अर्थात ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता-ज्ञेयरूप नहीं होता], "स्वसंवेद्यम्'' स्वसंवेद्य है [ अपनेसे ही अपनेको जानता है], और "अबाधितम्'' अबाधित है [अर्थात किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता] ।। ५४-२४६ ।।
* पं. श्री राजमलजी कृत टीकामें यह श्लोक छूट गया है। अतः यह श्लोक हिन्दी समयसारसे लेकर अर्थ सहित यहाँ दिया गया है।
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