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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[मन्दाक्रान्ता] रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य। ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत् तद्वद्यद्वत्प्रसरमपर: कोऽपि नास्यावृणोति।।१७-१७९ ।।
[सवैया इकतीसा] बंध के जो मूल उन रागादिकभावों को,जड़ से उखाड़ने उदीयमान हो रही। जिसके उदय से चिन्मयलोक की, यह कर्मकालिमा विलीयमान हो रही ।। जिसके उदय को कोई नहीं रोक सके, अद्भुत शोर्य से विकासमान हो रही। कमर कसे हुए धीर-वीर गंभीर, ऐसी दिव्य ज्योति प्रकाशमान हो रही।।१७९ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "एतत् ज्ञानज्योतिः तद्वत् सन्नद्धम्'' [ एतत् ज्ञानज्योतिः] स्वानुभवगोचर शुद्ध चैतन्यवस्तु [ तद्वत् सन्नद्धम्] अपने बल पराक्रमके साथ ऐसी प्रगट हुई कि "यद्वत् अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति'' [ यद्वत्] जैसे [अस्य प्रसरम्] शुद्ध ज्ञानका लोक अलोकसम्बन्धी सकल ज्ञेयको जाननेका ऐसा प्रसार जिसको [अपर: क: अपि] अन्य कोई दूसरा द्रव्य [न आवृणोति] नहीं रोक सकता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवका स्वभाव केवलज्ञान केवलदर्शन है, वह ज्ञानावरणादि कर्मबन्धके द्वारा आच्छादित है। ऐसा आवरण शुद्ध परिणामसे मिटता है, वस्तुस्वरूप प्रगट होता है। ऐसा शुद्ध स्वरूप जीवको उपादेय है। कैसी है ज्ञानज्योति ? "क्षपिततिमिरं'' [क्षपित] विनाश किया है [ तिमिरं] ज्ञानावरण दर्शनावरणकर्म जिसने ऐसी है। और कैसी है ? 'साधु' सर्व उपद्रवोंसे रहित है। और कैसी है ? 'कारणानां रागादीनाम् उदयं दारयत्'' [कारणानां] कर्मबंधके कारण ऐसे जो [ रागादीनाम्] राग द्वेष मोहरूप अशुद्ध परिणाम, उनके [उदयं] प्रगटपनेको [ दारयत्] मूलसे ही उखाड़ती हुई। कैसे उखाड़ती है ? ''अदयं'' निर्दयपनेके समान। और क्या करके ऐसी होती है ? "कार्य बन्धं अधुना सद्यः एव प्रणुद्य'' [ कार्यं ] रागादि अशुद्ध परिणामोंके होनेपर होता है ऐसे [ बन्धं ] धाराप्रवाहरूप होनेवाले पुद्गलकर्मके बन्धको [ सद्यः एव ] जिस कालमें रागादि मिट गये उसी कालमें [प्रणुद्य] मेटकरके। कैसा है बन्ध ? - "विविधम्'' ज्ञानावरण दर्शनावरण इत्यादि असंख्यात लोकमात्र है। कोई वितर्क करेगा कि ऐसा तो द्रव्यरूप विद्यमान ही था। समाधान इस प्रकार है कि [अधुना] द्रव्यरूप यद्यपि विद्यमान ही था तथापि प्रगटरूप बन्धको दूर करनेपर हुआ।। १७–१७९ ।।
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