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सर्वविशुद्धज्ञान - अधिकार
[ रथोद्धता ]
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।। २९-२२१।।
कहान जैन शास्त्रमाला ]
[ रोला ] अरे राग की उत्पत्ति में परद्रव्यों को, एकमात्र कारण बतलाते जो अज्ञानी । शुद्धबोध से विरहित वे अंधे जन जग में, अरे कभी भी मोह नदी से पार न होंगे ।। २२१ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- कहे हुए अर्थको गाढ़ा - दृढ़ करते है- " ते मोहवाहिनीं न हि उत्तरन्ति'' [ ते ] ऐसी मिथ्यादृष्टि जीवराशि [ मोहवाहिनीं ] मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति ऐसी जो शत्रुकी सेना उसको [ न हि उत्तरन्ति ] नहीं मेट सकती है। कैसे हैं वे मिथ्यादृष्टि जीव ? 'शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः [ शुद्ध ] सकल उपाधिसे रहित जीव वस्तुके [ बोध ] प्रत्यक्षका अनुभवसे [ विधुर ] रहित होनेसे [ अन्ध ] सम्यक्त्वसे शून्य है [ बुद्धय: ] ज्ञानसर्वस्व जिनका, ऐसे । उनका अपराध कौनसा ? उत्तर- अपराध ऐसा है; वही कहते है " ये रागजन्मनि परद्रव्यं
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निमित्ततां एव कलयन्ति ' [ ये ] जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे हैं - ' [ रागजन्मनि ] राग द्वेष मोह अशुद्ध परिणतिरूप परिणमनेवाले जीवद्रव्यके विषयमें [ परद्रव्यं ] आठ कर्म शरीर आदि नोकर्म तथा बाह्य भोगसामग्रीरूप [निमित्ततां कलयन्ति ] पुद्गलद्रव्यका निमित्त पाकर जीव रागादि अशुद्धरूप परिणमता है ऐसी श्रद्धा करती है जो कोई जीवराशि वे मिथ्यादृष्टि हैं- अनन्त संसारी हैं, जिससे ऐसा विचार है कि संसारी जीवके रागादि अशुद्धरूप परिणमनशक्ति नहीं है, पुद्गलकर्म बलात्कारही परिणमाता है। जो ऐसा है तो पुद्गलकर्म तो सर्व काल विद्यमान ही है। जीवको शुद्ध परिणामका अवसर कौन? अपि तु कोई अवसर नहीं।। २९-२२१।।
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