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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[शार्दूलविक्रीडित] अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः। इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता।। ५-१९७।।
[रोला] प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी हैं सदाभोगते, प्रकृतिस्वभाव से विरत ज्ञानिजन कभी न भोगें। निपुणजनो! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को, अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को।।१९७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यतां'' [निपुणैः ] सम्यग्दृष्टि जीवोंको [अज्ञानिता] परद्रव्यमें आत्मबुद्धि ऐसी मिथ्यात्वपरिणति [त्यज्यतां] जिस प्रकार मिटे उस प्रकार सर्वथा मेटने योग्य है। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि जीव ? " महसि अचलितैः'' शुद्ध चिद्रूपके अनुभवमें अखंड धारारूप मग्न है। कैसा है शुद्ध चिद्रूपका अनुभव ? ''शुद्धैकात्ममये' [शुद्ध ] समस्त उपाधिसे रहित ऐसा जो [ एकात्म] अकेला जीवद्रव्य [ मये] उसके स्वरूप है। और क्या करना है ? "ज्ञानिता आसेव्यतां'' शुद्ध वस्तुके अनुभवरूप सम्यक्त्व परिणतिरूप सर्व काल रहना उपादेय है। क्या जानकर ऐसा होवे ? "इति एवं नियमं निरूप्य'' [इति] जिस प्रकार कहते हैं- [एवं नियमं] ऐसे वस्तुस्वरूप परिणमनके निश्चयको [ निरूप्य] अवधारकरके। वह वस्तुका स्वरूप कैसा है? 'अज्ञानी नित्यं वेदक: भवेत्'' [अज्ञानी] मिथ्यादृष्टि जीव [नित्यं] सर्व काल [ वेदक: भवेत्] द्रव्यकर्मका भावकर्मका भोक्ता होता है ऐसा निश्चय है। मिथ्यात्वका परिणमन ऐसा ही है। कैसा है अज्ञानी ? ''प्रकृतिस्वभावनिरतः'' [प्रकृति] ज्ञानावरणादि आठ कर्मके [ स्वभाव] उदय होनेपर नाना प्रकार चतुर्गति शरीर रागादिभाव सुख-दुःखपरिणति इत्यादिमें [निरतः] आपा जानकर एकत्वबुद्धिरूप परिणमा है। "तु ज्ञानी जातु वेदक: नो भवेत् '' [ तु] मिथ्यात्वके मिटनेपर ऐसा भी है कि [ ज्ञानी] सम्यग्दृष्टि जीव [जातु] कदाचित् [ वेदक: नो भवेत् ] द्रव्यकर्मका भावकर्मका भोक्ता नहीं होता ऐसा वस्तुका स्वरूप है। कैसा है ज्ञानी ? 'प्रकृतिस्वभावविरतः'' [ प्रकृति] कर्मके [स्वभाव ] उदयके कार्यमें [ विरतः] हेय जानकर छूट गया है स्वामित्वपना जिसका, ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवके सम्यक्त्व होनेपर अशुद्धपना मिटा है, इसलिए भोक्ता नहीं है।। ५१९७।।
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