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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[शार्दूलविक्रीडित] कमैव प्रवितर्का कर्तृ हतकै: क्षिप्त्वात्मन: कर्तृतां कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्च्छुतिः कोपिता। तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थितिःस्तूयते।।१२-२०४ ।।
[रोला] कोई कर्ता मान कर्म को भावकर्म का , आतमा का कर्तृत्व उड़ाकर अरे सर्वथा। और कथंचित कर्ता आतम कहनेवाली, स्याद्वादमय जिनवाणी को कोपित करते।। उन्हीं मोहमोहितमतिवाले अल्पज्ञों के, सम्बोधन के लिए सहेतुक स्याद्वादमय। वस्तु का स्वरूप समझाते अरे भव्यजन, अब आगे की गाथाओं में कुन्दकुन्द मुनि।।२०४।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "वस्तुस्थितिः स्तूयते'' [वस्तु] जीवद्रव्यके [ स्थितिः] स्वभावकी मर्यादा [ स्तूयते] जैसी है वैसी कहते हैं। कैसी है ? '' स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया'' [ स्याद्वाद] 'जीव कर्ता है, अकर्ता भी है ऐसा अनेकान्तपना, उसकी [प्रतिबन्ध] सावधानरूपसे की गई स्थापना, उससे [लब्ध ] पाया है [ विजया] जीतपना जिसने ऐसी है। किस निमित्त कहते हैं ? "तेषां बोधस्य संशुद्धये' [ तेषाम् ] जो जीवको सर्वथा अकर्ता कहते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवोंकी [बोधस्य संशुद्धये] विपरीत बुद्धिके छुड़ानेके निमित्त जीवका स्वरूप साधते हैं। कैसी है वह मिथ्यादृष्टि जीवराशि ? "उद्धतमोहमुद्रितधियां'' [ उद्धत] तीव्र उदयरूप [ मोह ] मिथ्यात्वभावसे [मुद्रित] आच्छादित है [धियां] शुद्धस्वरूप अनुभवरूप सम्यक्त्वशक्ति जिनकी ऐसी है। और कैसी है ? " एषः आत्मा कथञ्चित् कर्ता इति कैश्चित् श्रुतिः कोपिता'' [ एष: आत्मा] चेतनास्वरूपमात्र जीवद्रव्य [कथञ्चित् कर्ता] किसी युक्तिसे अशुद्ध भावका कर्ता भी है [इति] इस प्रकार [ कैश्चित् श्रुतिः] कितनेही मिथ्यादृष्टि जीवोंको ऐसा सुननेमात्रसे [ कोपिता] अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता है। कैसा क्रोध होता है ? ''अचलिता'' जो अति गाढ़ा है, अमिट है। जिससे ऐसा मानते हैं''आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा'' [ आत्मनः] जीवका [कर्तृतां] अपने रागादि अशुद्ध भावोंका कर्तापना [क्षिप्त्वा] सर्वथा मेटकर [न मानकर ] क्रोध करते है। और कैसा मानते हैं ? "कर्म एव कर्तृ इति प्रवितर्का' [ कर्म एव] अकेला ज्ञानावरणादि कर्मपिण्ड [कर्तृ] रागादि अशुद्ध परिणामोंका अपनेमें व्याप्य-व्यापकरूप होकर कर्ता है [इति प्रवितळ] ऐसा गाढ़ापन करते हैं – प्रतीति करते हैं। सो ऐसी प्रतीति करते हुए कैसे हैं ? "हतकैः'' अपने घातक हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि हैं।।१२– २०४।।
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