Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 221
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [पृथ्वी] बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्ति: स्वयं तथाऽप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते।।२०-२१२ ।। [रोला] यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित। और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के ।। पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में। फिर भी आकुल व्याकुल होकर क्लेश पारहा।।२१२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- जीवका स्वभाव ऐसा है कि सकल ज्ञेयको जानता है। कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा जानेगा कि ज्ञेय वस्तुको जानते हुए जीवके अशुद्धपना घटित होता है। उसका समाधान ऐसा है कि अशुद्धपना नहीं घटित होता है। जीव वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है जो समस्त ज्ञेयवस्तुको जानता है। यहाँसे लेकर ऐसा भाव कहते हैं - "इह स्वभावचलनाकुलः मोहितः किं क्लिश्यते' [इह ] जीव समस्त ज्ञेयको जानता है ऐसा देखकर [ स्वभाव] जीवका शुद्ध स्वरूप, उससे [चलन] स्खलितपना जानकर [आकुल:] खेद-खिन्न हुआ मिथ्यादृष्टि जीव [मोहितः] मिथ्यात्वरूप अज्ञानपनाके आधीन हो [ किं क्लिश्यते] क्यों खेद-खिन्न होता है ? कारण कि “यतः स्वभावनियतं सकलम् एव वस्तु इष्यते' [ यतः] जिस कारण [ सकलम् एव वस्तु] जो कोई जीवद्रव्य अथवा पुद्गलद्रव्य इत्यादि है वह सब [ स्वभावनियतं] नियमसे अपने स्वरूप है ऐसा [इष्यते] अनुभवगोचर होता है। यही अर्थ प्रगट करके कहते हैं-''यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं बहिर्लुठति'' [ यद्यपि] यद्यपि प्रत्यक्षरूपसे ऐसा है कि [ स्फुटत्] सदाकाल प्रगट है [अनन्तशक्ति:] अविनश्वर चेतनाशक्ति जिसकी ऐसा जीवद्रव्य [स्वयं बहि: लुठति] स्वयं समस्त ज्ञेयको जानकर ज्ञेयाकाररूप परिणमता है ऐसा जीवका स्वभाव है, "तथापि अन्यवस्त्वन्तरम्'' [ तथापि] तो भी [अन्यवस्त्वन्तरम् ] एक कोई जीवद्रव्य अथवा पुद्गलद्रव्य ''अपरवस्तुनः न विशति'' किसी अन्य द्रव्यमें प्रवेश नहीं करता है, वस्तुस्वभाव ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य समस्त ज्ञेय वस्तुको जानता है ऐसा तो स्वभाव है, परन्तु ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता है, ज्ञेय भी ज्ञान द्रव्यरूप नहीं परिणमता है ऐसी वस्तुकी मर्यादा है।। २०-२१२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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