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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[मन्दाक्रान्ता] रुन्धन बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्गैः प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन्निर्जरोज्जृम्भणेन। सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरगं विगाह्य ।। ३०-१६२।।
[दोहा बंध न हो नव कर्म का पूर्व कर्म का नाश। नृत्य करें अष्टांग में सम्यग्ज्ञान प्रकाश।।१६२।।
खंडान्वय सहित अर्थः- “सम्यग्दृष्टि: ज्ञानं भूत्वा नटति'' [ सम्यग्दृष्टि:] शुद्ध स्वभावरूप होकर परिणत हुआ जीव [ ज्ञानं भूत्वा ] शुद्ध ज्ञानस्वरूप होकर [ नटति] अपने शुद्ध स्वरूपरूप परिणमता है। कैसा है शुद्ध ज्ञान ? "आदिमध्यान्तमुक्तं'' अतीत, अनागत, वर्तमान कालगोचर शाश्वत है। क्या करके ? ''गगनाभोगरज विगाह्य'' [गगन] जीवका शुद्ध स्वरूप है [आभोगरगं] अखाड़ेकी नाचनेकी भूमि, उसको [विगाह्य ] अनुभवगोचर करके, ऐसा है ज्ञानमात्र वस्तु। किस कारणसे ? "स्वयम् अतिरसात्' अनाकुलत्वलक्षण अतीन्द्रिय जो सुख उसे प्राप्त होनेसे। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "नवम् बन्धं रुन्धन्'' [ नवम्] धाराप्रवाहरूप परिणमा है जो ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलपिण्ड ऐसा जो [ बन्धं ] जीव के प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाहरूप, उसको [ रुन्धन] मेटता हुआ। क्योंकि “निजैः अष्टाभिः अङ्गैः सङ्गतः'' [निजैः अष्टाभिः] अपनेही निःशंकित, निःकांक्षित इत्यादि कहे जो आठ [ अङ्गैः] सम्यक्त्वके सहारेके गुण, उनसे [ सङ्गत:] भावरूप परिणमा है, ऐसा है। और कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "तु प्रारबद्धं कर्म क्षयं उपनयन्'' [ तु] दूसरा कार्य ऐसा भी होता है कि [प्राग्बद्धं ] पूर्व में बांधा है जो ज्ञानावरणादि [ कर्म] पुद्गलपिण्ड, उसका [क्षयं] मूलसे सत्तानाश [ उपनयन्] करता हुआ। किसके द्वारा ? “निर्जरोज्जृम्भणेन'' [निर्जरा] शुद्ध परिणामके [ उज्जृम्भणेन] प्रगटपनाके द्वारा।। ३०-१६२ ।।
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