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कहान जैन शास्त्रमाला]
निर्जरा-अधिकार
[शार्दूलविक्रीडित] यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिनिं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः। अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तगी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। २५-१५७ ।।
[हरिगीत] निज आतमा सत् और सत् का नाश हो सकता नहीं। है सदा रक्षित सत् अरक्षा भाव हो सकता नहीं ।। जब जानते यह ज्ञानीजन तब होंय क्यों भयभीत वें। वे तो सतत् निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें।।१५७ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "सः ज्ञानं सदा विन्दति'' [ सः] सम्यग्दृष्टि जीव [ ज्ञानं] शुद्धस्वरूप [सदा] तीनों कालोंमें [विन्दति] अनुभवता है - आस्वादता है। कैसा है ज्ञान ?''सततं'' निरंतर वर्तमान है। और कैसा है ज्ञान ? "स्वयं'' अनादि-निधन है। और कैसा है ? "सहजं'' बिना कारण द्रव्यरूप है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? ''निःशंक:'' 'कोई मेरा रक्षक है कि नहीं है ऐसे भयसे रहित है। किस कारणसे ? ''ज्ञानिन: तगीः कुतः'' [ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [ तभीः] 'मेरा रक्षक कोई है कि नहीं ऐसा भय [ कुतः] कहाँसे होवे ? अपितु नहीं होता है। अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत्'' [अतः] इस कारणसे [ अस्य ] जीव वस्तुके [ अत्राणं] अरक्षकपना [किञ्चन] परमाणुमात्र भी [ न भवेत् ] नहीं है। किस कारणसे नहीं है ? ' 'यत् सत् तत् नाशं न उपैति'' [ यत् सत्] जो कुछ सत्तास्वरूप वस्तु है [तत् नाशं न उपैति] वह तो विनाशको नहीं प्राप्त होती है। ''इति नियतं वस्तुस्थिति: व्यक्ता'' [इति] इस कारणसे [ नियतं] अवश्य ही [ वस्तुस्थितिः] वस्तुका अविनश्वरपना [ व्यक्ता] प्रगट है। “किल तत् ज्ञानं स्वयं एव सत् ततः अस्य अपरैः किं त्रातं'' [किल ] निश्चयसे [ तत् ज्ञानं] ऐसा है जीवका शुद्धस्वरूप [ स्वयं एव सत्] सहज ही सत्तास्वरूप है। [ततः] तिस कारणसे [अस्य] जीवके स्वरूपकी [अपरैः] किसी द्रव्यान्तरके द्वारा [ किं त्रातं] क्या रक्षा की जायगी। भावार्थ इस प्रकार है कि सब जीवोंको ऐसा भय उत्पन्न होता है कि मेरा रक्षक कोई है कि नहीं, सो ऐसा भय सम्यग्दृष्टि जीवके नहीं होता। कारण कि वह ऐसा अनुभव करता है कि शुद्ध जीवस्वरूप सहज ही शाश्वत है। इसकी कोई क्या रक्षा करेगा।। २५-१५७।।
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