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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
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अर्थात् द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मसे रहित, ऐसा है 'आत्मा'- जीवद्रव्य जिसका वह कहलाता है 'प्रत्यगात्मा'; उसका [तत्त्वं] स्वरूप, उसको [ पश्यन्ती] अनुभवनशील हैं। भावार्थ इस प्रकार हैकोई वितर्क करेगा कि दिव्यध्वनि तो पुद्गलात्मक है, अचेतन है, अचेतनको नमस्कार निषिद्ध है। उसके प्रति समाधान करने के निमित्त यह अर्थ कहा कि वाणी सर्वज्ञस्वरूप- अनुसारिणी है, ऐसा माने बिना भी बने नहीं। उसका विवरण- वाणी तो अचेतन है। उसको सुननेपर जीवादि पदार्थका स्वरूपज्ञान जिस प्रकार उपजता है उसी प्रकार जानना- वाणीका पूज्यपना भी है। कैसे हैं सर्वज्ञ वीतराग ? ''अनन्तधर्मणः'' [अनन्त] अति बहुत हैं [धर्मण:] गुण जिनके ऐसे हैं। भावार्थ इस प्रकार है- कोई मिथ्यावादी कहता है कि परमात्मा निर्गुण है, गुण विनाश होनेपर परमात्मपना होता है। सो ऐसा मानना झूठा है, कारण कि गुणोंका विनाश होनेपर द्रव्यका भी विनाश है।। २।।
[मालिनी] परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः। मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।३।।
[रोला यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ। फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से।। परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी। समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से।।३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''मम परमविशुद्धिः भवतु' शास्त्रकर्ता है अमृतचंद्रसूरि। वह कहता है- मम ] मुझे [ परमविशुद्धिः] शुद्धस्वरूपप्राप्ति। उसका विवरण- परम-सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिनिर्मलता [भवतु] होओ। किससे? "समयसारव्याख्यया'' [समयसार] शुद्ध जीव, उसके [ व्याख्यया] उपदेशसे हमको शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति होवो। भावार्थ इस प्रकार है- यह शास्त्र परमार्थरूप है, वैराग्य-उत्पादक है। भारत-रामायण के समान रागवर्धक नहीं है। कैसा हूँ मैं ? "अनुभूते:'' अनुभूति-अतीन्द्रिय सुख, वही है स्वरूप जिसका ऐसा हूँ। और कैसा हूँ ? "शुद्धचिन्मात्रमूर्तेः'' [शुद्ध] रागादि-उपाधिरहित [चिन्मात्र] चेतनामात्र [ मूर्तेः] स्वभाव है जिसका ऐसा हूँ। भावार्थ इस प्रकार है - द्रव्यार्थिकनयसे द्रव्यस्वरूप ऐसा ही है। और कैसा हूँ मैं ? "अविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः'' [अविरतं] निरंतरपने अनादि सन्तानरूप [अनुभाव्य] विषय-कषायादिरूप अशुद्ध चेतना, उसके साथ है [व्याप्ति] व्याप्ति अर्थात् उसरूप है विभावपरिणमन, ऐसा है [ कल्माषितायाः] कलंकपना जिसका ऐसा हूँ।
भावार्थ इस प्रकार है- पर्यायार्थिकनयसे जीववस्तु अशुद्धरूपसे अनादिकी परिणमी है। उस अशुद्धताके विनाश होनेपर जीववस्तु ज्ञानस्वरूप सुखस्वरूप है। आगे कोई प्रश्न करता है कि जीववस्तु अनादिसे अशुद्धरूप परिणमी है, वहाँ निमित्तमात्र कुछ
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