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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[वसंततिलका] जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्न ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम्। अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति।। ११-४३ ।।
[हरिगीत] निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को। जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन्न-भिन्न ही हैं जानते।। जग में पड़े अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह । अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है।।४३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ज्ञानी जनः लक्षणतः जीवात् अजीवम् विभिन्नं इति स्वयं अनुभवति'' [ ज्ञानी जनः] सम्यग्दृष्टि जीव, [ लक्षणतः] जीवका लक्षण चेतना तथा अजीवका लक्षण जड़ ऐसे बड़ा भेद है इसलिए [जीवात्] जीवसे [ अजीवम् ] अजीव-पुद्गल आदि [विभिन्नं] सहज ही भिन्न हैं [इति] इस प्रकार [ स्वयं] स्वानुभव प्रत्यक्षरूपसे [अनुभवति] आस्वाद करता है । कैसा है जीव ? 'उल्लसन्तम्'' अपने गुण-पर्यायसे प्रकाशमान है। "तत् तु अज्ञानिन: अयं मोह: कथम् अहो नानटीति बत'' [तत् तु] ऐसा है तो फिर [ अज्ञानिनः] मिथ्यादृष्टि जीवको [अयं] जो प्रगट है ऐसा [ मोहः ] जीव-कर्मका एकत्वरूप विपरीत संस्कार [कथम् नानटीति] क्यों प्रवर्त रहा है, [बत अहो] आश्चर्य है!
भावार्थ इस प्रकार है कि सहज ही जीव-अजीव भिन्न है ऐसा अनुभवनेपर तो ठीक है, सत्य है; मिथ्यादृष्टि जो एककर अनुभवता है सो ऐसा अनुभव कैसे आता है इसका बड़ा अचम्भा है। कैसा है मोह ? "निरवधिप्रविजृम्भितः'' [निरवधि] अनादि कालसे [प्रविजृम्भितः] संतानरूपसे पसर रहा है।। ११-४३।।
[वसंततिलका] अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः।। १२-४४।।
[हरिगीत] अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्यमें । बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में।। यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है। आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है।।४४।।
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