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- ३कर्ता-कर्म- अधिकार '
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[ मंदाक्रान्ता] एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्। ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधि पृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्।। १-४६ ।।
[हरिगीत] मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब । है यही कर्ता कर्म की यह प्रवृत्ति अज्ञानमय।। शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकासिनी। अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञान ज्योति प्रकाशिनी।।४६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''ज्ञानज्योतिः स्फुरति'' [ ज्ञानज्योतिः ] शुद्ध ज्ञानप्रकाश [ स्फुरति] प्रगट होता है। कैसा है ? ''परमोदात्तम्' सर्वोत्कृष्ट है। और कैसा है ? "अत्यन्तधीरं'' त्रिकाल शाश्वत है। और कैसा है ? "विश्वं साक्षात् कुर्वत्'' [विश्वं ] सकल ज्ञेयवस्तुको [ साक्षात् कुर्वत्] एक समयमें प्रत्यक्ष जानता है। और कैसा है ? "निरुपधि'' समस्त उपाधिसे रहित है। और कैसा है ? ' 'पृथग्द्रव्यनिर्भासि'' [ पृथक् ] भिन्न-भिन्न रूपसे [ द्रव्यनि सि] सकल द्रव्य-गुण-पर्यायको जाननशील है। क्या करता हुआ प्रगट होता है ? "इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिं अभितः शमयत्" [इति] उक्त प्रकारसे [अज्ञानां] जो मिथ्यादृष्टि जीव है उनकी [कर्तृकर्मप्रवृत्तिं] जीववस्तु पुद्गलकर्मकी कर्ता है ऐसी प्रतीतिको [अभितः] संपूर्णरूपसे [शमयत्] दूर करता हुआ। वह कर्तृकर्म-प्रवृत्ति कैसी है ? "एकः अहम् चित् कर्ता इह अमी कोपादयः मे कर्म'' [ एक:] अकेला [ अहम् ] मैं जीवद्रव्य [ चित्] चेतनस्वरूप [कर्ता] पुद्गल कर्मको करता हूँ। [इह] ऐसा होनेपर [अमी कोपादयः] विद्यमानरूप हैं जो ज्ञानावरणादिक पिण्ड वे [ मे ] मेरी [कर्म ] करतूति है। ऐसा है मिथ्यादृष्टिका विपरीतपना उसको दूर करता हुआ ज्ञान प्रगट होता है।
भावार्थ इस प्रकार है कि यहाँसे लेकर कर्तृ-कर्म अधिकार प्रारंभ होता है।। १-४६ ।।
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